Sunday 29 May 2016

I AM PROUD TO BE HAVE A JAT

 यह लेख जाटवंश के वीरों की कुछ घटनाओं को लेकर ही लिखा है । इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य वंशीय लोगों के बलिदानों को भुला दिया । "इस लेख में मैं केवल जाटों से सम्बन्धित कुछ बातें लिखूंगा । बाकी लोगों के संबन्ध में अन्य लेखों में ।" वैसे  जाट, अहीर, राजपूत, ब्राह्मण और वैश्य आदि सभी का सामान्यतः इसमें उल्लेख किया है । जाति-पांति के झंझट में फंसना हमारा सिद्धान्त नहीं परन्तु पृथक-पृथक नामों से कुछ समूह प्रसिद्ध हो चुके हैं । उनका उसी नाम से वर्णन करने में कुछ सुविधा रहती है । जाट एक क्षत्रिय वंश है । उसके नाम मात्र को सुनकर नाक भौं सिकोड़कर साम्प्रदायिक कहना उचित नहीं । लेखक को इतिहास सामग्री से लाभ उठाना ही अभिप्रेप्सित होना चाहिये । - वेदव्रत सम्पादक

पिछले पांच हजार साल से भारत के भाग्य निर्णायक युद्ध हरयाणे की वीर-भूमि में लड़े जाते रहे हैं । धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में भाई से भाई का जो युद्ध हुआ उसमें ऐसी परम्परा पड़ी कि आज भी इस धरती पर भाई से भाई लड़ता कतराता नहीं । और इसी हरयाणे की पवित्र भूमि के ठीक मध्य में दिल्ली है जो न्यूनाधिक अपनी स्थापना से आज तक इस राष्ट्र की राजधानी चली आई है । हजारों साल से वे देश के स्वातन्त्र्य युद्धों में सामूहिक रूप से भाग लेते आये हैं । परन्तु इतिहास में उनके अमर बलिदानों की कहानी का उल्लेख नहीं हुआ है । जाट रणभूमि में अपने जौहर बार-बार दिखला चुका है, फिर भी राजपूत, सिख, मराठों जैसे युद्ध सम्बन्धी प्राचीन दन्त-कथायें उसके भाग्य में नहीं हैं । परन्तु अपनी मातृभूमि के लिए जिस दृढ़ता से जाट लड़ सकता है, उनमें से कोई भी नहीं लड़ सकता । अधिक से अधिक प्रतिकूल परिस्थिति में भी पूर्ण रूप से शान्त बने रहने और घबरा न उठने की प्राकृतिक शक्ति से जाट भरपूर होता है । भय तो जाट को छू भी नहीं सकता । जो भी चोट उस पर पड़ती है, उससे वह और भी कड़ा बन जाता है । उद्योग और साहस में तो जाट अद्वितीय होता है । शारीरिक संगठन, भाषा, चरित्र, भावना, शासन-क्षमता, सामाजिक परिस्थिति आदि के विचार से जाट ऊँचा स्थान रखता है ।

भारतीय इतिहास के निर्माण में जाट वंश का महत्वपूर्ण भाग रहा है । हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म के लिए जाटों ने जो जो कार्य किये हैं, वे सदैव स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं । परन्तु आज भी आम हिन्दू में जाटों के प्रति जो भावना है उसे भला नहीं कहा जा सकता है । प्रेस और प्लेटफार्म से राजपूत, मराठा, सिख, गोरखों का यशोगान करते रहिये । आपको कोई कुछ न कहेगा परन्तु आपने भूल कर भी जाट के लिये कुछ लिख दिया या कह दिया तो आप फौरन साम्प्रदायिक घोषित कर दिये जावेंगे । जिन जाटों के लिए देश पर बलि देना बायें हाथ का खेल रहा है, जिनके रक्त में पवित्र कर्त्तव्य-पालन और देशभक्ति के भावों के परमाणु पूरी तरह से मिले हुए हैं, जो आन पर लड़ना और जान पर मरना खूब जानते हैं, आन के लिये घर बिगाड़ना जिस जाट के लिए साधारण बात रही है, उसके यशोगान से नफरत करना क्या हिन्दू जाति की ऐसान-फरामोशी नहीं है ?
विशाल हिन्दू जाति में से प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री कालिका रंजन कानूनगो ही ऐसे हैं जिन्होंने इस ऋण से अनृण होने का प्रयत्न किया है । जाटों के सम्बन्ध में श्री कानूनगो के जो विचार हैं, उन्हें मैं उद्धृत करना आवश्यक समझता हूं । वे लिखते हैं -
"एक जाट उतना कल्पनाशील और भावुक नहीं होता जितना सुदृढ़ और धर्मशाली । शब्द प्रमाण की अपेक्षा उस पर प्रत्यक्ष उदाहरण का विशेष प्रभाव पड़ता है । स्वातन्त्र्य-प्रियता और परिश्रम-शीलता उसके विशेष गुण हैं । उसे अपने व्यक्तित्व का बड़ा ध्यान रहता है । वह स्वजाति सत्ता का समर्थक होने के साथ संगठन-कला में भी दक्ष होता है । जाट जिस बात को ठीक समझता है उसे करने में तुरन्त प्रवृत हो जाता है । यद्यपि वह स्वतन्त्र प्रकृति का होने के कारण, अपनी इच्छानुसार ही सब कुछ कर डालता है, तथापि वह उचित बात को सुनने, समझने और तदनुसार काम करने के लिए सदैव तैयार रहता है ।"
भारतीय इतिहास में जाटों की जो उपेक्षा की गई है, उसके दोषी जाट स्वयं किसी से कम नहीं है । जाटों ने लेखकों का कभी सम्मान नहीं किया, न ही कभी खुद लिखा । पीढ़ियों से उनके दो ही काम रहे हैं - देश की पुकार पर युद्ध करना और शान्ति के समय हल चलाकर, अन्न पैदा कर देश का पेट भरना । आज जाटों में पढ़े लिखों की कमी नहीं । उनमें अनेक डी.लिट., पी-एच.डी., एम.ए., बी.ए., आचार्य, शास्त्री, प्रभाकर, ज्ञानी इत्यादि हैं । उनके अपने अनेक कालिज हैं, जिनमें अनेक नवयुवक सुन्दर सुखद भविष्य की कल्पना में लीन हैं । आज जाटों के पास साधनों की भी कमी नहीं है । उनमें अनेक शक्तिशाली पुरुष हैं । पर क्या उनमें से कोई माई का लाल नहीं जो जयचन्द्र विद्यालंकार की तरह अपने जीवन को शोध में लगा दे ? क्या जाटों की कोई संस्था है जो ऐसे जन की रोटी, कपड़े, निवास की व्यवस्था कर सके ? ईरान से इलाहाबाद तक के विशाल भूखंड में जाटों के वीरत्व-पूर्ण बलिदानों की कहानियाँ चप्पा-चप्पा भूमि में बिखरी पड़ी हैं । उनका संग्राहक चाहिये । जीवन की बाजी लगाने वाला चाहिये जो भारतीय इतिहास की अनेक टूटी कड़ियों को मिला सके, अपनी शोध द्वारा ।
दो हजार वर्ष पूर्व दुर्दान्त हूणों के आक्रमण से अपने प्रबल पराक्रम द्वारा जाटों ने भारत की रक्षा की और उन्हें देश से निकाल बाहर किया ।
छठी शताब्दी में जाट राजा हर्षवर्धन उत्तर भारत के सर्वशक्तिमान् सम्राट् थे जिनके राज्य-प्रबन्ध की प्रशंसा चीनी यात्रियों ने भी की है । इन्हीं के राज्य में बाण जैसा कवि था जिसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि "बाणोच्छिष्टं जगत् सर्वम्" । संस्कृत साहित्य का कोई ऐसा शब्द न होगा जिसका बाण ने प्रयोग न किया हो । सौलह सौ वर्ष पूर्व उत्तर भारत में जाटों के अनेक उदाहरण थे जिनमें रोहतक का यौधेयगण राज्य सर्वाधिक प्रसिद्ध था । यहाँ के वीर क्षत्रियों ने अपने रक्त की अन्तिम बूंद तक बहाकर पंचायती राज्य की रक्षा के लिए अकथनीय बलिदान दिये । उनके समृद्धिशाली राज्य की कहानी रोहतक का खोखरा कोट पुकार-पुकार कर कह रहा है ।थानेसरकैथलअग्रोहासिरसाभादरा आदि इनके प्रसिद्ध जनपद थे ।
१०२५ में जब महमूद गजनवी गुजरात के संसार-प्रसिद्ध देवालय सोमनाथ को लूटकर रेगिस्तान के रास्ते वापिस गजनवी जा रहा था तब भटिण्डा के जाट राजा विजयराव ने उसे सिन्ध के मरुस्थल में घेरा और उसकी असंख्य धनराशि अपने कब्जे में की तथा उसे खाली हाथ लौटने के लिए (प्राण बचाकर भागने के लिए) विवश किया । नौ सौ साल पहले बुटाना के जाटों ने अत्याचारी मुगलों को घातरट (सफीदों के पास) के मुकाम पर हराया और गठवाले (मलिक) जाटों ने पठानों को कलानौर में शिकस्त दी ।
मुगलिया सल्तनत के दौरान में हरयाणा के वीर-पुत्रों ने सर्वखाप पंचायत के मातहत अनेक लड़ाइयां लड़ीं और महत्वपूर्ण बलिदान दिये जो अलग ही लेख का विषय है । औरंगजेब ने ब्रज के गोकुला जाट को मुसलमान न बनने पर जिन्दा चर्खी पर चढ़ा दिया था और माड़ू जाट की जिन्दा जी खाल (चमड़ी) उतरवा ली थी । उसी समय बोदर के महन्तों की वैरागी फौजों में शामिल होकर जाट मुगलों से निरन्तर संघर्षरत होते रहे ।
महाराजा सूरजमल ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए जो किया उसे भुलाना कृतघ्नता होगी । ढीली पड़ती मुगलिया सल्तनत की कमजोरी से लाभ उठा उन्होंने विशाल राज्य स्थापित किया । वे शरणागत-वत्सल थे । जिस समय जयपुर पर राजपूताने के राजाओं और मराठों की सम्मिलित शक्ति का आक्रमण हुआ तो महाराजा ईश्वरी सिंह की करुण कथा सुन तथा दूत द्वारा केवल पत्र पुष्प ही ग्रहण कर, बीस सहस्र जाट सैनिकों के साथ आमेर जा पहुंचे । राजपूतों तथा मराठों की सम्मिलित शक्ति को पराजित कर ईश्वरीसिंह को निष्कंटक राजा तो बना ही दिया, अपने शक्ति की धाक भी सब पर जमा दी । वे उस समय उत्तर भारत के सबसे शक्तिशाली राजा थे । जिस समय अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर १७६१ में चतुर्थ आक्रमण किया और पेशवा के प्रतिनिधि सदाशिवराव भाऊ ने उसके आक्रमण का प्रतिशोध करने के लिए हिन्दू शक्ति का आह्वान किया, उस समय जहाँ राजपूत राजाओं ने भाऊ का साथ देने से इन्कार किया, वहां महाराजा सूरजमल अपने पचास हजार रणबांकुरों को लेकर मैदान में आ पहुंचे । यही नहीं, उन्होंने विशाल मराठा वाहिनी के लिए अपने खजाने से एक महीने का राशन भी दिया ।
बादली के युद्ध में घायल दत्ता जी सिंधिया को उठाकर जाट सैनिक कुम्भेर के दुर्ग में ले गये । अब्दाली के आतंक के कारण दिल्ली के जिस वजीर गाजीउद्दीन को कोई शरण देने के लिए तैयार न था और जो महाराजा सूरजमल का प्रबल विरोधी था, उसे भी उन्होंने शरण दी । यदि सदाशिवराव भाऊ महाराजा सूरजमल की सलाह मान गुरिल्ला युद्ध ठान लेते तथा प्रतापी जाट राजा को अपमानित नहीं करते, तो भारतवर्ष का इतिहास ही दूसरा होता । महाराजा सूरजमल के जाने के बाद भाऊ जब पानीपत के मैदान में खेत रहे, उनका खजाना लुट गया । आज भी हरयाणे में भाऊ की लूट मुहावरे के रूप में प्रसिद्ध है । मराठा सैनिकों और स्त्रियों को कहीं ठिकाना न रहा, तब महाराजा भरतपुर ने अपने दुर्ग के द्वार शरणागतों के लिए खोल दिये । अपने राज्य की प्रजा को आदेश दिया कि वे युद्ध से बचकर भागे मराठा सैनिकों का यथाशक्ति सम्मान करें । स्वयं भरतपुर दुर्ग से महारानी किशोरी अपनी देख रेख में चालीस-चालीस हजार आहत सैनिकों को दोनों समय भोजन कराती थी । एक पखवाड़े तक यह क्रम जारी रहा । इसके उपरान्त उनको विदा करते समय प्रत्येक बड़े सरदार को एक सहस्र रुपये, प्रत्येक सैनिक को सौ रुपये, लत्ते-कपड़े तथा अन्न दिया और अपनी सेना की देख-रेख में ग्वालियर दुर्ग तक भेजा । यदि महाराजा सूरजमल आड़े न आते तो बहुत थोड़े मराठे नर्मदा पार कर अपने देश को पहुंच पाते । यदि वे बदला लेने पर उतारू होते तो एक भी मराठा सैनिक बचकर ग्वालियर न पहुँच पाता । एक मराठा सरदार लिखता है "महाराजा सूरजमल ने हाथ जोड़ कर हम से कहा - मैं तुम्हारे पास का हूँ, मैं तुम्हारा एक सेवक हूं, यह राज्य तुम्हारा ही है ।" सूरजमल जैसे उदार प्रवृत्ति के मनुष्य संसार में बहुत कम हुए हैं ।

जब महाराजा सूरजमल शाहदरा के पास धोखे से मारे गये तो महारानी किशोरी (होडल के प्रभावशाली सोलंकी जाट नेता चौ. काशीराम की पुत्री) ने महाराजा जवाहरसिंह को एक ही ताने में यह कहकर कि "तुम पगड़ी बांधे हुए फिरते हो, तुम्हारे पिता की पगड़ी शाहदरा के झाऊओं में उलटी पड़ी है", युद्ध के लिए तैयार कर दिया । महाराजा जवाहरसिंह ही पहले हिन्दू नरेश थे जिन्होंने आगरे के किले और दिल्ली के लाल किले को जीतकर विजय वैजयन्ती फहराई थी । दिल्ली के लाल किले के युद्ध में जब किसी भी तरह किला फतह न हो पा रहा था तब महाराजा जवाहरसिंह के मामा और महारानी किशोरीबाई के भाई वीरवर बलराम ने किले के फाटकों के लम्बे-लम्बे कीलों पर छाती अड़ा हाथी के मस्तिष्क पर बड़े-बड़े तवे बन्धवा पीलवान से हाथी हूलने को कहा । हाथी की मार से किले के किवाडों और तवों के बीच में बलराम का शरीर निर्जीव हो उलझ गया पर उनके अमर बलिदान से अजेय दुर्ग के फाटक टूट गए और वह जीत लिया गया । भारतीय इतिहास में ऐसे अपूर्व बलिदान की एक ही कहानी और मिलती है और वह है उदयपुर के महाराणा अमरसिंह के समयरणथम्भौर के आक्रमण में चूड़ावतों व शेखावतों के झगड़े में शेखावत सरदार की आत्माहुति ।

कौन नहीं जानता कि भारतेन्द्र महाराजा जवाहरसिंह ही एकमात्र ऐसे हिन्दू नरेश थे जिन्होंने हिन्दू जाति के मुसलमानों द्वारा नष्ट किये हुए गौरव की रक्षा करके हमारी मान मर्यादा को सुरक्षित किया था । इतिहास-वेत्ता और इतिहास-प्रेमी पाठकों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि महमूद गजनवीचंगेज खाँतैमूरलंगऔरंगजेब आदि मुगल आक्रान्ताओं, लुटेरों और बादशाहों ने हिन्दुओं के अनेक मन्दिरों को तोड़ा, मूर्तियों को खण्डित किया, मंदिरों में शंख, घड़ियाल व घण्टों का बजाना बंद कर के उनमें आरती होने तक को बंद करा दिया था । अनेक हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बना लिया था । यहां तक कि हिन्दुओं की बहिन-बेटियों को छीनकर मुसलमान बना लिया था । यदि इन अत्याचारों का बदला किसी ने लिया तो सच्चे वीर क्षत्रिय महाराजा जवाहरसिंह ने । उन्होंने आगरा आदि नगरों में अपने राज्य बल से मुल्लाओं को प्रातः-सायं बांग देने से रोक दिया था । आगरा की जामा मस्जिद में बाजार लगवा दिया था परन्तु उसे तुड़वाया नहीं । इससे उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया था । अन्यथा वे चाहते तो क्षण भर में नष्ट भ्रष्ट करा देते और उसका चिन्ह तक मिटा देते । देहली से लौटते हुए उन्होंने सैंकड़ों नव-मुस्लिमों को जाट बना लिया था, जो आज भी हिन्दू जाति का गौरव बढ़ा रहे हैं । वही एक ऐसे प्रातः स्मरणीय हिन्दू नरेश हुए हैं जिन्होंने सच्चे अर्थों में हिन्दुत्व की रक्षा की तथा अकबर के सिंहासन पर बैठकर आगरे में शासन किया ।
१८०५ में भरतपुर के दुर्ग पर जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया तो महाराजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों के जिस तरह दांत खट्टे किये वह तो इतिहास की अद्वितीय गाथा बन गया है । और उसी समय से यह कहावत प्रसिद्ध हो गई है कि - आठ फिरंगी, नौ गोरे, लड़ें जाट के दो छोहरे । कविवर वियोगी हरि ने भी अपनी वीर सतसईं में लिखा है "एही भरतपुर को दुग्ग है, जहं जट्टन के छोहरे .....दिये अंग्रेज सुभट्ट पछारी ।"
मातृभूमि के पैरों में से दासता की बेड़ियाँ उतरवाने के लिए, उसकी स्वतन्त्रता प्राप्ति के हित जो अंग्रेजों के विरुद्ध १८५७ का युद्ध लड़ा गया, उसमें सबसे बढ़-चढ़ कर भाग अहीरों और जाटों ने लिया जिसका फल इन्हें अंग्रेजों के राज्य में बहुत बुरे तरह भोगना पड़ा और इन्हें अनेक राज्यों में विभक्त कर दिया गया ।
१०२ वर्ष पूर्व जीन्द राज्य के प्रसिद्ध गाँव लजवाना में भूरा अन्द निघांईया दो जाट चौधरी बसते थे । मजदा और दुर्गा के बहकाने से महाराजा जीन्द ने उन पर आक्रमण कर दिया । यह युद्ध छः महीने तक चला । भूरा और निघांईया की मदद चारों ओर की जटैत करती थी जो समय के अनुसार घटती, बढ़ती रहती थी । धन, जन की कभी कमी न रहती थी । भूरा और निघांईया अपने मातहत काम करने वालों को आठ रुपये महीना देते थे । तोपची को सोलह रुपये महीना । सात सौ हेड़ी उनकी फौज में तोपची का काम करते थे । गोला, बारूद, रसद उन्हें रिठाना, फड़वाल और खुडाली (किला जफरगढ़) के ठिकानों से पहुंचती थी । खुडाली में तो पुराने घरों में अब तक शोरा, गन्धक, पुरानी बन्दूक, गंडासे आदि बड़ी तादाद में खुदाई पर निकल आते हैं । इस युद्ध में पटियाला, नाभा, जीन्द आदि राज्यों की बीस हजार से अधिक फौज काम आई थी । अंग्रेजी फौज ने आकर बड़ी कठिनाई से लजवाना को फतह किया था । आज भी पटियाला के देहात में बहनें यह गीत बड़े दर्द के साथ गाती हैं कि –
"लजवाने, तेरा नाश जाइयो, तैने बड़े पूत खपाये"
हरयाणा के स्वाभिमानी पुरुष अंग्रेजी राज्य की स्थापना के कितने विरुद्ध थे, यह उपर्युक्त घटना से अच्छी तरह ज्ञात हो जाता है । अन्त में भूरा और निघांईया पकड़े गये तथा उन्हें कालवा (जीन्द राज्य का प्रसिद्ध गांव) में फांसी पर लटका दिया गया । फांसी गांव के बाहर वृक्षों पर दी गई तथा सारे इलाके के लोगों को बुलाकर, जिससे अंग्रेज की दहशत सब पर छा जावे और कोई भी ब्रिटिश प्रभु के खिलाफ सिर न उठ सके ।
सन् १८०९ में जब कर्नल वारिन पलटन लेकर भिवानी फतह के लिए गये, उस समय उसके चारों ओर बसने वाले जाटों, राजपूतों, ब्राह्मणों और वैश्यों ने डटकर लोहा लिया था । और तो और, जिन वैश्यों की व्यापारी कहकर उपेक्षा की जाती है, उनके अगुआ ला० नन्दराम अपने चार बेटों के साथ युद्ध में काम आये । कोसली के प्रसिद्ध पंडित तुलसीराम जी अपने भाई तोताराम के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में जूझे थे । १८०२ में जार्ज थामस ने पहले पहल हरयाणा की भूमि पर कब्जा किया । उसने बेरीझज्जर तथा महम अपने अधीन किये, तथा सारे पंजाब पर कब्जा करने का विचार करने लगा । उसकी सफलता का कारण था तत्कालीन राजाओं व नवाबों का आपसी विग्रह । परन्तु हरयाणा वाले जल्दी ही संभल गये और उन्होंने बापू जी सिंधिया तथा भरतपुर के जाट नरेश महाराजा रणजीतसिंह की अध्यक्षता में युद्ध करके जार्ज थाम्स को इस प्रदेश पर से भगा दिया था । बाद में ईस्ट इंडिया कम्पनी की शासन सत्ता छा गई और यहाँ के निवासी सन् ५७ तक अन्दर ही अन्दर अंग्रेज के विरुद्ध धधकते रहे । १८५७ के स्वातन्त्र्य युद्ध में हरयाणे के राजाओं, नवाबों, सैनिकों और जन साधारण ने जो महत्त्वपूर्ण भाग लिया है, वह अलग ही लेख (लेख नहीं, पुस्तक) का विषय है । इस में कोई सन्देह नहीं कि हरयाणा के वीर पुत्रों (सभी जातियों) ने जो भाग आजादी की लड़ाई में लिया उसका उल्लेख बहुत कम हुआ है । रामपुरारिवाड़ीफर्रुखनगरबहादुरगढ़झज्जरबल्लभगढ़नसीरपुर (नारनौल)श्यामड़ीरोहतकथानेसरपानीपतकरनालपाईकैथलसिरसाहाँसीनंगलीजमालपुरहिसारआदि सभी स्थान विद्रोहियों के केन्द्र रहे हैं । उपरोक्त सभी स्थानों पर कुछ न कुछ दिन आजादी के दीवानों की हकूमत रही है । इस लेख में मैं केवल जाटों से सम्बन्धित कुछ बातें लिखूंगा । बाकी लोगों के संबन्ध में अन्य लेखों में ।

१० मई को मेरठ से जो चिन्गारी छूटी वह ११ को देहली आ पहुँची । मेरठ की फौजों में सबसे अधिक हरयाणे के जाट और राजपूत थे । उनके बाद अहीर । उन फौजी सिपाहियों द्वारा यह आग सारे प्रदेश में व्याप्त हो गई । उस समय तक रोहतक बंगाल के गवर्नर के मातहत था, तथा कमिश्नरी का हेड-क्वार्टर आगरा । यहाँ के डिप्टी कमिश्नर जॉन एडमलौक थे । २३ मई को बहादुरगढ़ में शाही फौज ने प्रवेश किया और २४ मई को रोहतक पहुंची । डिप्टी कमिश्नर गोहाने के रास्ते करनाल भाग गया । रहे हुए अंग्रेज अधिकारी मारे गये । जेल के दरवाजे खोल दिये गये, कचहरी को आग लगा दी गई । शाही दस्ते ने शहर के हिन्दुओं को लूटना चाहा पर जाटों ने ऐसा न करने दिया । दो दिन ठहर कर विद्रोहियों ने खजाने से दो लाख रुपया निकाल लिया । मांडौठीमदीनामहम की चौकियाँ लूट ली गईं । सांपला तहसील में आग लगा दी गई । सभी अंग्रेज स्त्रियों को जाटों ने मुस्लिम राजपूतों (रांघड़ों) के विरोध के बावजूद सही सलामत उनके ठिकानों पर पहुंचा दिया । गोहाना पर गठवाले जाटों ने कब्जा जमा लिया । ३० मई को अंग्रेजी फौज अंबाला से रोहतक चली, पर देशी फौजों के बिगड़ने से श्यामड़ी के जंगल में हार गई । बचे खुचे अंग्रेज दिल्ली को भागे । लुकते-छिपते ये लोग १० जून को सांपला पहुंचे । डिप्टी कमिश्नर सख्त धूप न सह सकने के कारण अंधा हो गया । रोहतक के विद्रोही १४ जून को दिल्ली पहाड़ी की लड़ाई में सम्मिलित हुए थे । जब अंग्रेज रोहतक पर किसी तरह भी काबू न पा सके तो मजबूर होकर उन्होंने २६ जुलाई सन् ५७ को एक घोषणा द्वारा जींद के महाराजा स्वरूपसिंहको सौंप दिया । दिसम्बर के अन्त तक जहां लोग अंग्रेज से लड़ते रहे, वहां जाटों की खापें आपस में भी एक दूसरे पर आक्रमण करती रहीं और बीच-बीच में रांघड़ों और कसाइयों से भी लड़ते रहे ।
जब गदर समाप्त हुआ तो प्रायः सभी गावों के मुखिया लोगों और खासकर नम्बरदारों को फांसी पर चढ़ा दिया गया था । झज्जर के चारों ओर की सड़कें उल्टे लटके मनुष्यों की लाशों से सड़ उठीं थीं । मुसलमान राजपूत गांवों के नम्बरदारों को तथा श्यामड़ी गांव के १० जाट नम्बरदारों व १ ब्राह्मण को रोहतक की कचहरियों व शहर के बीच नीम के वृक्षों पर (वर्तमान चौधरी छोटूराम की कोठी के सामने के वृक्षों पर) फांसी पर लटका दिया गया था । फांसी देने से पहले दसों जाट नम्बरदारों को बुलाकर अंग्रेज हाकिमों ने पूछा - बोलो क्या चाहते हो ? जाटों ने कहा कि हमारे ग्यारहवें साथी मुल्का ब्राह्मण को छोड़ दो । मुल्का ब्राह्मण ने अपने साथियों से अलग होने से इन्कार कर दिया । उसे भी उनके साथ ही फाँसी दे दी गई । सारी लाशें गाँव में लाकर जलाईं गईं । फांसी पाने वालों के खोज करने के बाद ९ नाम जान सका, दो का पता न चला । क्रमशः नाम ये हैं - मुल्का ब्राह्मण, हरदयाल, श्योगा, हरकू, बहादुरचन्द, जमनासिंह, हरिराम, शिल्का, भाईय्या (सब जाट) ।
कप्तान हडसन १६ अगस्त सन् ५७ को १२ बजे रोहतक पहुंचा था । उसने कुछ लोगों को इकट्ठे देखकर गोली चला दी जिससे १६ आदमी मारे गये । यह घटना चारों ओर के देहात में फैल गई । अगले दिन १७ अगस्त को सिंहपुरासुन्दरपुरटिटौली आदि के १५०० आदमी चढ़ आये, जिनमें से ५० रणभूमि में ही खेत रहे । झज्जर के नवाब अब्दुर्रहमान को २३ दिसम्बर १८५७ को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया । २१ अप्रैल १९५८ को बल्लभगढ़ नरेश नाहरसिंह फांसी पर झुला दिये गये और उन्हीं के साथ नवाब झज्जर के तीन वजीरों में से एक वजीर बादली के गुलाबसिंह जाट भी फांसी पर चढ़ा दिये गये । राव तुलाराम व राव कृष्णगोपाल ने जो अतुल पराक्रम दिखाया, वह स्वर्णाक्षरों में अंकित होने योग्य है । इसी अर्से में बहादुरगढ़दादरीफर्रुखनगर के नवाब समाप्त कर दिये गये । फर्रुखनगर के नवाब मुहम्मद अली खाँ को फांसी दी गई और उनके ११ साथियों को गोली से उड़ा दिया गया । महाराजा नाहरसिंह के साथ फांसी पाने वालों में कुंवर खुशहालसिंह और ठाकुर भूरेसिंह भी थे ।
हिसार में सन् ५७ में हरयाणवी फौज की लाइट पलटन तैनात थी और १४वां घुड़सवार रिसाला था । पंजाब के तत्कालीन चीफ कमिश्नर सर जान लारेन्स ने एक अनुभवी सेना नायक जनरल वान कोटलैंड को भेजा ।हिसारसिरसाहांसी और उनके देहात में जहाँ भी, जो भी अंग्रेज फंसा, समाप्त कर दिया गया । जहाँ रोहतक-करनाल के युद्धों में सिक्खों ने अंग्रेजों की सहायता की, वहां हिसार के युद्ध में महाराजा बीकानेर के ८०० सिपाही अंग्रेज की ओर से लड़े । हांसी के देहात में जो मारकाट मची, वह रोंगटे खड़े करने वाली है । जो अमानवीय अत्याचार यहाँ हुए, वह लिखे नहीं जा सकते । यदि उनका मुकाबला किया जा सकता है तो सन् १९४७ के नरमेध से । जमालपुर मंगली आदि गांव राख के ढ़ेर बना दिये गये । युद्ध की समाप्ति पर देहात से पकड़कर १५० के लगभग लोगों को फांसी पर सरे आम लटका दिया गया ।
कुरुक्षेत्र के ब्राह्मणों के आदेश से हरयाणवी फौज ने इलाके के जाटों के साथ मिलकर थानेसर की सरकारी इमारतें जला दीं और तहसील पर कब्जा कर लिया । पाई के जाटों ने कैथल जीत लिया । असन्ध के मुसलमान राजपूत पानीपत तक चढ़ आये । खरखोदा (रोहतक) के लोग दिल्ली की बादशाही फौजों से जा मिले । खरखोदा की देहात के २० आदमी गोली से उड़ा दिये गये और १४ फाँसी पर लटका दिये गये ।
इस तरह हरयाणा के अन्दर फैले विद्रोह को दबाने के लिये सिक्ख व राजपूत फौज के साथ अंग्रेजी फौज ने भारी अत्याचार किये तथा सन् ५७ के अन्त तक सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार कर लिया । लार्ड केनिंग चाहते थे कि हरयाणे की शूरवीर जातियों का सम्मान करना चाहिये । पर जनरल नील और मिंटगुमरी सम्मान करना तो दूर रहा, उजाड़ने पर तुले हुए थे ।
क्रान्ति १८५७ में हुई थी पर सन् १९०२ तक हरयाणा की सड़कें व जंगल उजाड़े जाते रहे । ग्रामों में संस्कृत की पाठशालायें बंद की गईं । मन्दिर उजाड़े गये । दो और तीन हजार के बीच पंचायतें तोड़ीं गईं । न्यायालयों में हिन्दी के स्थान पर उर्दू जारी की गई । जिन पंजाब वालों से हरयाणा का न रहन-सहन मिलता है न बोल-चाल, उन्हीं के साथ हरयाणा को आगरा से अलग कर मिला दिया गया । कुछ भाग जीन्द, नाभा, पटियाला की रियासतों के साथ मिला दिये गये । पंजाब के मुकाबले में इस प्रदेश की भारी उपेक्षा की गई । नये-नये कर लगाये गये । यहाँ के पैसे से पंजाब में नहरें निकाली गईं । कर्नल रैनक अंग्रेज को डिप्टी कमिश्नर बनाकर, २० वर्ष तक बारी-बारी करनालरोहतकहिसारगुड़गाँव जिलों में भेजा जाता रहा जो इस प्रदेश के स्वाभिमानी वीर क्षत्रियों के हृदयों को ठेस लगाता रहा । उसने क्रान्ति में भाग लेने वाले अनेकों वंशों की जागीरें छीनीं, अमानुषिक दंड दिये । पर कर्नल रैनक के अत्याचार भी इस प्रदेश की वीरतापूर्ण भावना को दबा न सके ।
ऋषि दयानन्द की कृपा इस प्रदेश पर हुई, आर्यसमाज का प्रचार धीरे-धीरे बढ़ा । सभी जाट आर्यसमाजी हो गये । स्वदेशी की भावना पनपी । जहाँ उन्होंने सन् १९१४ के विश्व युद्ध में फौज में भरती होकर जर्मनी जैसी विश्वशक्ति को युद्ध में पछाड़ा (पहले विश्व-युद्ध में ६ नं. जाट पलटन के जौहर प्रसिद्ध हैं, उनके शौर्य की प्रशंसा शत्रुओं ने भी की है), वहाँ उन्हीं दिनों उनके कानों में जाट सरदार अजीत सिंह की यह आवाज भी पड़ी कि "पगड़ी संभाल ओ जट्टा, पगड़ी संभाल" । उन्होंने गांधी जी के आन्दोलनों में बढ़ चढ़ कर भाग लिया तथा अनेक लोगों ने घर-द्वार छोड़ देश की आजादी के लिये सर्वस्व न्यौछावर किया ।
राजा महेन्द्रप्रताप आजादी की चसक में रियासत छोड़कर ३३ साल तक संसार के अनेक देशों की खाक छानते फिरे परन्तु उनके बलिदान की कीमत किसने की ? आज अनेकों नकारा राजनीतिज्ञ राज्यपाल बने बैठे हुए हैं पर राजा जी लोकसभा में आये तो कांग्रेस के विरोध में ।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जब जनरल मोहनसिंह ने आजाद हिन्द फौज बनाई और नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने उसका नेतृत्व संभाला तब उसमें सबसे बड़ी संख्या जाटों की थी । यह बात दूसरी है कि इन्हें वह यश नहीं मिला जो दूसरे लोगों को । कर्नल दिलसुखमान इतने सीनियर आफीसर थे कि वे आज स्थल सेनाध्यक्ष होते । पर आज वे आजाद हिन्द फौज के कारण घर बैठे हैं, उन्हें कोई पूछने वाली नहीं । मांडौठी के कप्तान कंवलसिंहने नेता जी सुभाषचन्द्र के साथ बर्लिन से टोकियो तक पनडुब्बी में यात्रा की और रंगून से जापान के लिए उड़ने से पहले तक उनके साथ रहे, इस बात को कौन जानता है ? काश्मीर युद्ध में रिटौलीकबूलपुर के जमादार हरद्वारीलाल ने १० हजार फुट की उंचाई पर टैंक चढ़ाकर संसार में अद्भुत आश्चर्य उत्पन्न किया था । आज तक कोई भी इतनी उंचाई तक टैंक नहीं चढ़ा सका है । समाल गाँव के हुशियारसिंह अभी पिछले दिनों नागा पहाड़ियों में नागाओं से लड़ते हुए काम आये । भगतसिंह क्रांति की ज्वाला जलाते-जलाते फाँसी पर झूल गये । ऊधमसिंह सात समुद्र पर जनरल ओडायर को मारकर बलि हो गये । ऊधमसिंह-ताराचन्दअभी पिछले दिनों जोधपुर में डाकू कल्याणसिंह के मुकाबले में कुर्बान हो गये और उनकी कुर्बानी का ही यह परिणाम है कि आज राजस्थान, पाकिस्तान की सीमा डाकू-विहीन हो गई है ।
जिन मिस्टर जिन्ना से सारे हिन्दुस्तान के राजनीतिज्ञ मुकाबला करते घबराते थे, उन्हीं जिन्ना साहब को विचक्षण जाट राजनीतिज्ञ चौधरी छोटूराम ने कान पकड़कर पंजाब से निकाल दिया था । सन् ४२ में भक्त फूलसिंहजी आतताइयों के हाथ कत्ल हो गये । स्वामी स्वतंत्रानन्द जी महाराज गोरक्षा के लिए बलि हो गये ।
सन् १९४७ के गृह-युद्ध में यदि जाट गिरिराजशरणसिंह उर्फ बच्चूसिंह के नेतृत्व में मेव आक्रमण का मुकाबला न करते तो भारतीय इतिहास की धारा ही दूसरी होती और शायद दिल्ली हमारी न होती । इस गृह-युद्ध में जाट लोगों ने जिस वीरता के साथ भाग लिया है, वह किसी जानकार की लेखनी ही लिख सकती है । यह लम्बी कहानी है । वर्तमान हिन्दी सत्याग्रह संग्राम में जाटों ने ही सब से बढ़-चढ़कर बलिदान दिया । हैदराबाद में घर्मयुद्ध में सबसे अधिक सत्याग्रही हरयाणा से गये और उनमें भी सबसे ज्यादा थे जाट । पर जो यश उन्हें मिलना चाहिए था, नहीं मिला । आज भी जाटों में बलिदाताओं की कमी नहीं है । यदि कमी है तो उनको प्रकाश में लाने वालों की । हो सकता है नई पढ़ी-लिखी सन्तति इस तरफ कुछ ध्यान देकर विशाल भू-प्रदेश में बिखरे अपने इतिहास को संग्रहीत करने का प्रयत्न करे । जाटों का इतिहास उत्तर भारत का इतिहास है । आर्यों के विशाल साम्राज्य का इतिहास है ।
काश ! जाट तलवार की तरह कलम का भी धनी होता तो उनका इतिहास यों छिन्न-भिन्न न होता । इस धर्म-निरपेक्ष गणतन्त्र में वे संभल जायें तो भी अच्छा है । आशा है दूसरे लोग भी जाटों से बिदकना छोड़कर इनकी उदारता से नाजायज लाभ उठाना छोड़ेंगे ।

सौ साल पहले दो जाटों ने छः महीने तक महाराजा जींद का मुकाबला किया था

(पृष्ठ - 321-325)

जिला रोहतक के पश्चिम में (जहाँ रोहतक की सीमा समाप्त होकर जीन्द की सीमा प्रारम्भ होती है), रोहतक से 25 मील पश्चिम और पटियाला संघ के जीन्द शहर से 15 मील पूर्व में लजवाना नाम का प्रसिद्ध गांव है । सौ साल पहले उस गांव में दलाल गोत के जाट बसते थे । गांव काफी बड़ा था । गांव की आबादी पांच हजार के लगभग थी । हाट, बाजार से युक्त गाँव धन-धान्य पूर्ण था । गांव में 13 नम्बरदार थे । नम्बरदारों के मुखिया भूरा और तुलसीराम नाम के दो नम्बरदार थे । तुलसीराम नम्बरदार की स्त्री का स्वर्गवास हो चुका था । तुलसी रिश्ते में भूरा का चाचा लगता था । दोनों अलग-अलग कुटुम्बों के चौधरी थे । भूरे की इच्छा के विरुद्ध तुलसी ने भूरे की चाची को लत्ता (करेपा कर लिया) उढ़ा लिया जैसा कि जाटों में रिवाज है । भूरा के इस सम्बंध के विरुद्ध होने से दोनों कुटुम्बों में वैमनस्य रहने लगा ।
समय बीतने पर सारे नम्बरदार सरकारी लगान भरने के लिये जीन्द गये । वहाँ से अगले दिन वापिसी पर रास्ते में बातचीत के समय भोजन की चर्चा चल पड़ी । तुलसी नम्बरदार ने साथी नम्बरदारों से अपनी नई पत्नी की प्रशंसा करते हुए कहा कि "साग जैसा स्वाद (स्वादिष्ट) म्हारे भूरा की चाची बणावै सै, वैसा और कोई के बणा सकै सै ?" भूरा नम्बरदार इससे चिड़ गया । उस समय तक रेल नहीं निकली थी, सभी नम्बरदार घर पैदल ही जा रहे थे । भूरा नम्बरदार ने अपने सभी साथी पीछे छोड़ दिये और डग बढ़ाकर गांव में आन पहुंचा । आते ही अपने कुटुम्बी जनों से अपने अपमान की बात कह सुनाई । अपमान से आहत हो, चार नौजवानों ने गांव से जीन्द का रास्ता जा घेरा । गांव के नजदीक आने पर सारे नम्बरदार फारिग होने के लिए जंगल में चले गए । तुलसी को हाजत न थी, इसलिए वह घर की तरफ बढ़ चला । रास्ता घेरने वाले नवयुवकों ने गंडासों से तुलसी का काम तमाम कर दिया और उस पर चद्दर उढ़ा गांव में जा घुसे । नित्य कर्म से निवृत्त हो जब बाकी के नम्बरदार गांव की ओर चले तो रास्ते में उन्होंने चद्दर उठाकर देखा तो अपने साथी तुलसीराम नम्बरदार को मृतक पाया । गांव में आकर तुलसी के कत्ल की बात उसके छोटे भाई निघांईया को बताई । निघांईया ने जान लिया कि इस हत्या में भूरा का हाथ है । पर बिना विवाद बढ़ाये उसने शान्तिपूर्वक तुलसी का दाह कर्म किया तथा समय आने पर मन में बदला लेने की ठानी ।
कुछ दिनों बाद रात के तीसरे पहर तुलसीराम के कातिल नौजवानों को निघांईया नम्बरदार (भाई की मृत्यु के बाद निघांईया को नम्बरदार बना दिया गया था) के किसी कुटुम्बीजन ने तालाब के किनारे सोता देख लिया और निघांईया को इसकी सूचना दी । चारों नवयुवक पशु चराकर आये थे और थके मांदे थे । बेफिक्री से सोए थे । बदला लेने का सुअवसर जान निघांईया के कुटुम्बीजनों ने चारों को सोते हुए ही कत्ल कर दिया । प्रातः ही गांव में शोर मच गया और भूरा भी समझ गया कि यह काम निघांईया का है । उसने राजा के पास कोई फरियाद नहीं की क्योंकि जाटों में आज भी यही रिवाज चला आता है कि वे खून का बदला खून से लेते हैं । अदालत में जाना हार समझते हैं । जो पहले राज्य की शरण लेता है वह हारा माना जाता है और फिर दोनों ओर से हत्यायें बन्द हो जाती हैं । इस तरह दोनों कुटुम्बों में आपसी हत्याओं का दौर चल पड़ा ।
उन्हीं दिनों महाराज जीन्द (स्वरूपसिंह जी) की ओर से जमीन की नई बाँट (चकबन्दी) की जा रही थी । उनके तहसीलदारों में एक वैश्य तहसीलदार बड़ा रौबीला था । वह बघरा का रहने वाला था और उससे जीन्द का सारा इलाका थर्राता था । यह कहावत बिल्कुल ठीक है कि –
बणिया हाकिम, ब्राह्मण शाह, जाट मुहासिब, जुल्म खुदा ।
अर्थात् जहाँ पर वैश्य शासक, ब्राह्मण साहूकार (कर्ज पर पैसे देने वाला) और जाट सलाहकार (मन्त्री आदि) हो वहाँ जुल्म का अन्त नहीं रहता, उस समय तो परमेश्वर ही रक्षक है ।
तहसीलदार साहब को जीन्द के आस-पास के खतरनाक गांव-समूह "कंडेले और उनके खेड़ों" (जिनके विषय में उस प्रदेश में मशहूर है कि "आठ कंडेले, नौ खेड़े, भिरड़ों के छत्ते क्यों छेड़े") की जमीन के बंटवारे का काम सौंपा गया । तहसीलदार ने जाते ही गाँव के मुखिया नम्बरदारों और ठौळेदारों को बुला कर डांट दी कि "जो अकड़ा, उसे रगड़ा" । सहमे हुए गांव के चौधरियों ने तहसीलदार को ताना दिया कि - ऐसे मर्द हो तो आओ 'लजवाना' जहाँ की धरती कटखानी है (अर्थात् मनुष्य को मारकर दम लेती है) । तहसीलदार ने इस ताने (व्यंग) को अपने पौरुष का अपमान समझा और उसने कंडेलों की चकबन्दी रोक, घोड़ी पर सवार हो, "लजवाना" की तरफ कूच किया । लजवाना में पहुंच, चौपाल में चढ़, सब नम्बरदारों और ठौळेदारों को बुला उन्हें धमकाया । अकड़ने पर सबको सिरों से साफे उतारने का हुक्म दिया । नई विपत्ति को सिर पर देख नम्बरदारों और गांव के मुखिया, भूरा व निघांईया ने एक दूसरे को देखा । आंखों ही आंखों में इशारा कर, चौपाल से उतर सीधे मौनी बाबा के मंदिर में जो कि आज भी लजवाना गांव के पूर्व में एक बड़े तालाब के किनारे वृक्षों के बीच में अच्छी अवस्था में मौजूद है, पहुंचे और हाथ में पानी ले आपसी प्रतिशोध को भुला तहसीलदार के मुकाबले के लिए प्रतिज्ञा की । मन्दिर से दोनों हाथ में हाथ डाले भरे बाजार से चौपाल की तरफ चले । दोनों दुश्मनों को एक हुआ तथा हाथ में हाथ डाले जाते देख गांव वालों के मन आशंका से भर उठे और कहा "आज भूरा निघांईया एक हो गये, भलार (भलाई) नहीं है ।" उधर तहसीलदार साहब सब चौधरियों के साफे सिरों से उतरवा उन्हें धमका रहे थे और भूरा तथा निघांईया को फौरन हाजिर करने के लिए जोर दे रहे थे । चौकीदार ने रास्ते में ही सब हाल कहा और तहसीलदार साहब का जल्दी चौपाल में पहुंचने का आदेश भी कह सुनाया । चौपाल में चढ़ते ही निघांईया नम्बरदार ने तहसीलदार साहब को ललकार कर कहा, "हाकिम साहब, साफे मर्दों के बंधे हैं, पेड़ के खुंडों (स्तूनों) पर नहीं, जब जिसका जी चाहा उतार लिया ।" तहसीलदार बाघ की तरह गुर्राया । दोनों ओर से विवाद बढ़ा । आक्रमण, प्रत्याक्रमण में कई जन काम आये । छूट, छुटा करने के लिए कुछ आदमियों को बीच में आया देख भयभीत तहसीलदार प्राण रक्षा के लिए चौपाल से कूद पड़ौस के एक कच्चे घर में जा घुसा । वह घर बालम कालिया जाट का था । भूरा, निघांईया और उनके साथियों ने घर का द्वार जा घेरा । घर को घिरा देख तहसीलदार साहब बुखारी में घुसे । बालम कालिया के पुत्र ने तहसीलदार साहब पर भाले से वार किया, पर उसका वार खाली गया । पुत्र के वार को खाली जाता देख बालम कालिया साँप की तरह फुफकार उठा और पुत्र को लक्ष्य करके कहने लगा–
जो जन्मा इस कालरी, मर्द बड़ा हड़खाया ।
तेरे तैं यो कारज ना सध, तू बेड़वे का जाया ॥
अर्थात् - जो इस लजवाने की धरती में पैदा होता है, वह मर्द बड़ा मर्दाना होता है । उसका वार कभी खाली नहीं जाता । तुझसे तहसीलदार का अन्त न होगा क्योंकि तेरा जन्म यहां नहीं हुआ, तू बेड़वे में पैदा हुआ था । (बेड़वा लजवाना गांव से दश मील दक्षिण और कस्बा महम से पाँच मील उत्तर में है । अकाल के समय लजवाना के कुछ किसान भागकर बेड़वे आ रहे थे, यहीं पर बालम कालिए के उपरोक्त पुत्र ने जन्म ग्रहण किया था )।
भाई को पिता द्वारा ताना देते देख बालम कालिए की युवति कन्या ने तहसीलदार साहब को पकड़कर बाहर खींचकर बल्लम से मार डाला ।
मातहतों द्वारा जब तहसीलदार के मारे जाने का समाचार महाराजा जीन्द को मिला तो उन्होंने "लजवाना" गाँव को तोड़ने का हुक्म अपने फौज को दिया । उधर भूरा-निघांईया को भी महाराजा द्वारा गाँव तोड़े जाने की खबर मिल चुकी थी । उन्होंने राज-सैन्य से टक्कर लेने के लिए सब प्रबन्ध कर लिये थे । स्*त्री-बच्चों को गांव से बाहर रिश्तेदारियों में भेज दिया गया । बूढ़ों की सलाह से गाँव में मोर्चे-बन्दी कायम की गई । इलाके की पंचायतों को सहायता के लिए चिट्ठी भेज दी गई । वट-वृक्षों के साथ लोहे के कढ़ाये बांध दिये गए जिससे उन कढ़ाओं में बैठकर तोपची अपना बचाव कर सकें और राजा की फौज को नजदीक न आने दें । इलाके के सब गोलन्दाज लजवाने में आ इकट्ठे हुए । महाराजा जीन्द की फौज और भूरा-निघांईया की सरदारी में देहात निवासियों की यह लड़ाई छः महीने चली । ब्रिटिश इलाके के प्रमुख चौधरी दिन में अपने-अपने गांवों में जाते, सरकारी काम-काज से निबटते और रात को लजवाने में आ इकट्ठे होते । अगले दिन होने वाली लड़ाई के लिए सोच विचार कर प्रोग्राम तय करते । गठवालों के चौधरी रोज झोटे में भरकर गोला बारूद भेजते थे । राजा की शिकायत पर अंग्रेजी सरकार ने वह भैंसा पकड़ लिया ।
जब महाराजा जीन्द (सरदार स्वरूपसिंह) किसी भी तरह विद्रोहियों पर काबू न पा सके तो उन्होंने ब्रिटिश फौज को सहायता के लिए बुलाया । ब्रिटिश प्रभुओं का उस समय देश पर ऐसा आतंक छाया हुआ था कि तोपों के गोलों की मार से लजवाना चन्द दिनों में धराशायी कर दिया गया । भूरा-निघांईया भाग कर रोहतक जिले के अपने गोत्र बन्धुओं के गाँव चिड़ी में आ छिपे । उनके भाइयों ने उन्हें तीन सौ साठ के चौधरी श्री दादा गिरधर के पास आहूलाणा भेजा । (जिला रोहतक की गोहाना तहसील में गोहाना से तीन मील पश्चिम में गठवाला गौत के जाटों का प्रमुख गांव आहूलाणा है । गठवालों के हरयाणा प्रदेश में 360 गांव हैं । कई पीढ़ियों से इनकी चौधर आहूलाणा में चली आती है । अपने प्रमुख को ये लोग "दादा" की उपाधि से विभूषित करते हैं । इस वंश के प्रमुखों ने कभी कलानौर की नवाबी के विरुद्ध युद्ध जीता था । स्वयं चौधरी गिरधर ने ब्रिटिश इलाके का जेलदार होते हुए भी लजवाने की लड़ाई तथा सन् 1857 के संग्राम में प्रमुख भाग लिया था) ।
जब ब्रिटिश रेजिडेंट का दबाव पड़ा तो डिप्टी कमिश्नर रोहतक ने चौ. गिरधर को मजबूर किया कि वे भूरा-निघांईया को महाराजा जीन्द के समक्ष उपस्थित करें । निदान भूरा-निघांईया को साथ ले सारे इलाके के मुखियों के साथ चौ. गिरधर जीन्द राज्य के प्रसिद्ध गांव कालवा (जहां महाराजा जीन्द कैम्प डाले पड़े थे), पहुंचे तथा राजा से यह वायदा लेकर कि भूरा-निघांईया को माफ कर दिया जावेगा, महाराजा जीन्द ने गिरधर से कहा - मर्द दी जबान, गाड़ी दा पहिया, टुरदा चंगा होवे है"। दोनों को राजा के रूबरू पेश कर दिया गया । माफी मांगने व अच्छे आचरण का विश्वास दिलाने के कारण राजा उन्हें छोड़ना चाहता था, पर ब्रिटिश रेजिडेंट के दबाव के कारण राजा ने दोनों नम्बरदारों (भूरा व निघांईया) को फांसी पर लटका दिया ।
दोनों नम्बरदारों को 1856 के अन्त में फांसी पर लटकवा कर राजा ने ग्राम निवासियों को ग्राम छोड़ने की आज्ञा दी । लोगों ने लजवाना खाली कर दिया और चारों दिशाओं में छोटे-छोटे गांव बसा लिए जो आज भी "सात लजवाने" के नाम से प्रसिद्ध हैं । मुख्य लजवाना से एक मील उत्तर-पश्चिम में "भूरा" के कुटुम्बियों ने "चुडाली" नामक गांव बसाया । भूरा के बेटे का नाम मेघराज था ।
मुख्य लजवाना ग्राम से ठेठ उत्तर में एक मील पर निघांईया नम्बरदार के वंशधरों ने "मेहरड़ा" नामक गांव बसाया ।
जिस समय कालवे गांव में भूरा-निघांईया महाराजा जीन्द के सामने हाजिर किये गए थे, तब महाराजा साहब ने दोनों चौधरियों से पूछा था कि "क्या तुम्हें हमारे खिलाफ लड़ने से किसी ने रोका नहीं था ?" निघांईया ने उत्तर दिया - मेरे बड़े बेटे ने रोका था । सूरजभान उसका नाम था । राजा ने निघांईया की नम्बरदारी उसके बेटे को सौंप दी । अभी दो साल पहले निघांईया के पोते दिवाना नम्बरदार ने नम्बरदारी से इस्तीफा दिया है । इसी निघांईया नम्बरदार के छोटे पुत्र की तीसरी पीढ़ी में चौ. हरीराम थे जो रोहतक के दस्युराज 'दीपा' द्वारा मारे गए । इन्हीं हरीराम के पुत्र दस्युराज हेमराज उर्फ 'हेमा' को (जिसके कारण हरयाणे की जनता को पुलिस अत्याचारों का शिकार होना पड़ा था और जिनकी चर्चा पंजाब विधान सभा, पंजाब विधान परिषद और भारतीय संसद तक में हुई थी), विद्रोहात्मक प्रवृत्तियाँ वंश परम्परा से मिली थीं और वे उनके जीवन के साथ ही समाप्त हुईं ।
लजवाने को उजाड़ महाराजा जीन्द (जीन्द शहर) में रहने लगे । पर पंचायत के सामने जो वायदा उन्होंने किया था उसे वे पूरा न कर सके, इसलिए बड़े बेचैन रहने लगे । ज्योतिषियों ने उन्हें बताया कि भूरा-निघांईया के प्रेत आप पर छाये रहते हैं । निदान परेशान महाराजा ने जीन्द छोड़ संगरूर में नई राजधानी जा बसाई । स्वतंत्रता के बाद 1947 में सरदार पटेल ने रियासतें समाप्त कर दीं । महाराजा जीन्द के प्रपौत्र जीन्द शहर से चन्द मील दूर भैंस पालते हैं और दूध की डेरी खोले हुए हैं । समय बड़ा बलवान है । सौ साल पहले जो लड़े थे, उन सभी के वंश नामशेष होने जा रहे हैं । समय ने राव, रंक सब बराबर कर दिये हैं । समय जो न कर दे वही थोड़ा है । समय की महिमा निराली है ।

हरयाणा का स्वातन्त्र्य संग्राम

लेखक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती (आचार्य भगवान् देव)

दिल्ली के चारों ओर डेढ़ सौ - डेढ़ सौ मील की दूरी तक का प्रदेश हरयाणा प्रान्त कहलाता है । सारे प्रान्त में जाट, अहीर, गूजर, राजपूत आदि योद्धा (जुझारू) जातियां बसती हैं । इसीलिये हरयाणा ने इस युद्ध में सब प्रान्तों से बढ़-चढ़कर भाग लिया था । इसी प्रान्त के एक भाग मेरठ में यह क्रान्ति की चिन्गारी सब से पहले सुलगी और शनैः-शनैः सारे भारत में फैल गई । इस स्वतन्त्रता के युद्ध के शान्त होने पर हरयाणा प्रान्त की जनता पर जो भीषण अत्याचार अंग्रेजों ने किए उनको स्मरण करने से वज्रहृदय भी मोम हो जाता है । कोटपुतली जयपुर राज्य के ठिकाने खेवड़ी के राजा को दे दिया । इसी के फलस्वरूप अंग्रेजों ने इस प्रान्त को अनेक भागों में विभाजित करके इस वीर प्रान्त की संगठन शक्ति को चूर-चूर कर दिया । मेरठ, आगरा, सहारनपुर आदि इसके भाग उत्तर-प्रदेश में मिला दिये । भरतपुर, अलवर आदि राजस्थान में मिला दिये । कुछ भाग को दिल्ली प्रान्त का नाम देकर के पृथक कर दिया । नारनौल को पटियाला राज्य, बावल को नाभा और दादरी-नरवाना को जीन्द स्टेट, जो फुलकिया राज्य कहलाते हैं, उन में मिला दिया जो झज्जर प्रान्त के भाग थे । शेष गुड़गावां, रोहतक, हिसार, करनाल आदि को पंजाब में मिला दिया । इस प्रकार हरयाणा की वीर-भूमि को खण्डशः करके नष्ट-भ्रष्ट कर दिया ।
हरयाणा के एक एक ग्राम ने बड़ी वीरता से अंग्रेज के साथ युद्ध किया है, आज उन सब का इतिहास नहीं मिलता । आज तक सन् 57 के क्रान्तियुद्ध में भाग लेने वाले अनेक ग्रामों के वीर भूमिहीन कृषक के रूप में अपने कष्टपूर्ण दिन काट रहे हैं । जैसे लिबासपुरकुण्डलीभालगढ़खामपुरअलीपुरहमीदपुर, सराय इत्यादि जी. टी. रोड, जो दिल्ली से लाहौर की ओर जाता है, उस पर बसते हैं । कुछ ग्रामों के विषय में संक्षेप से लिखता हूं ।

लिबासपुर का बलिदान

जी० टी० रोड में से एक टुकड़ा सड़क का सोनीपत को जाता है, उसी स्थान पर यह गाँव बसा हुआ है । उस समय से अब तक इसमें जाटकुल क्षत्रिय बसते हैं । क्रांतियुद्ध के समय उदमी राम नाम का एक वीर युवक इसी ग्राम का निवासी था, जो अंग्रेज सैनिक दिल्ली से भागकर इधर से जते थे, यह उनके साथ युद्ध करता था । इसने अपने 22 वीर योद्धाओं का एक संगठन बना रखा था, जो अत्यन्त वीर, स्वस्थ, सुन्दर, सुदृढ़ शरीर वाले युवक थे । अतः उस सड़क पर से गुजरने वाले अंग्रेज सैनिकों को चुन-चुन कर मारते थे और सब को समाप्त कर देते थे । एक दिन एक अंग्रेज अपने धर्मपत्नी सहित ऊंटकराची में जी० टी० रोड पर देहली से पानीपत को जा रहा था । जब वह लिबासपुर के निकट आया तो इन वीरों ने उसे पकड़ लिया और अंग्रेज को तो उसी समय मार दिया, किन्तु भारतीय सभ्यता के अनुसार उस अंग्रेज औरत को नहीं मारा । ग्राम के कुछ दुष्ट प्रकृति के लोगों ने उस अंग्रेज स्त्री को गांव के चारों ओर मई की धूप में चक्कर लगवाया और खलिहान (पैर) में बैलों का गांहटा भी हंकवाया । इस प्रकार की घटनाओं को कुछ इतिहास लेखक झूठी और अंग्रेजों की घड़ी हुई बतलाते हैं । हरयाणा के ही नहीं, बल्कि सभी भारतीयों ने अंग्रेजी देवियों और बच्चों पर कहीं अत्याचार नहीं किए । सायंकाल भालगढ़ में रहने वाली बाई जी (ब्राह्मणी) को उस अंग्रेज स्त्री की देखभाल के लिए सौंप दिया । उसे समुचित भोजन वस्त्रादि देकर सेवा की । इस घटना के समाचार आस पास के सभी ग्रामों में फैल गये । कितने ही बाहर के ग्रामों के लोग समाचार जानने के लिए लिबासपुर आये । इनमें राठधना निवासी सीताराम भी था । उसने ग्राम में आकर सब वृत्त को जानने का विशेष यत्न किया और भालगढ़ ग्राम में बाई जी के पास, जहां वह अंग्रेज स्त्री ठहरी थी, उसके पास भी पहुंच गया । उस अंग्रेज स्त्री को इन्होंने बता दिया कि लिबासपुर के उदमीराम, गुलाब, जसराम, रामजस, रतिया आदि ने बहुत से अंग्रेजों को मृत्यु के घाट उतारा है और तुझे भी मारने का षड्यंत्र कर रहे हैं । सीताराम और बाई जी ने उस अंग्रेज महिला के साथ गुप्त मन्त्रणा की । उस अंग्रेज देवी ने इन्हें अनेक प्रकार के वचन दिये और प्रलोभन दिया कि यदि आप मुझे रातों रात पानीपत के सुरक्षित स्थान पर जहां अंग्रेजों का कैंप है, पहुंचा दो तो बहुत सारी सम्पत्ति मैं दोनों को दिलवाऊंगी । उन दोनों ने सवारी का प्रबन्ध करके उसे पानीपत में अंग्रेजों के कैम्प में पहुंचा दिया । युद्ध शान्त होने पर क्रांतियुद्ध के समय की कई रिपोर्टों के आधार पर अंग्रेजों ने लोगों को दण्ड और पारितोषिक देना आरम्भ किया और अपने निश्चित कार्यक्रम के अनुसार एक दिन अंग्रेज सेना ने प्रातःकाल चार बजे लिबासपुर ग्राम को चारों ओर से घेर लिया । उदमी, जसराम, रामजस, सहजराम, रतिया आदि वीर योद्धाओं ने अपने साधारण शस्त्र जेली, तलवार, गण्डासे, लाठियां और बल्लम संभाले, किन्तु ये गिने चुने वीर साधारण शस्त्रों के एक बहुत बड़ी अंग्रेज सेना के साथ जो आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित थी, कब तक युद्ध कर सकते थे ? बहुत से मारे गए और शेष सब गिरफ्तार कर लिए गए । गिरफ्तार हुए व्यक्तियों की पहचान के लिए देश-द्रोही बाई जी और सीताराम को बुलाया गया । उन्होंने जिन जिन व्यक्तियों को बताया कि इन्होंने अंग्रेज मारे हैं, गिरफ्तार कर लिए गए । सारे ग्राम को बुरी प्रकार से लूटा गया । तीस पैंतीस बैलगाड़ियां गांव के तमाम धन-धान्य, मूल्यवान सामान से भर कर देहली भेज दीं गईं । ग्राम की सब स्त्रियों के आभूषण बलपूर्वक छीन लिए गए । किसी व्यक्ति के पास कुछ भी न रहने दिया । शेष गांव के निवासी मृत्यु के भय से गांव छोड़कर भाग गये और जीन्द राज्य के रामकली ग्राम, झज्जर तहसील के खेड़का ग्राम में और सोनीपत तहसील के कल्याणाऔर रत्नगढ़ ग्राम में जाकर बस गये । ये लोग इन ग्रामों में तीन वर्ष तक बसे रहे । जब तीन वर्ष के पश्चात् पूर्ण शान्ति हो गई, लौटकर अपने ग्राम में आये । ग्राम तीन वर्ष तक सर्वथा उजड़ा हुआ (निर्जन) पड़ा रहा । शान्ति होने पर सीताराम ने अपने सम्बन्धियों को मुरथल से तथा अन्य स्थानों से लाकर उस में बसा दिया और लिबासपुर का निवासी लिखवा दिया । उसने इस प्रकार की धूर्तता की । सीताराम ने इस ग्राम के कागजात में अपना नाम लिखवा दिया और लिबासपुर ग्राम को खरीदा हुआ बताया और कागजी कार्यवाही पूरी कर दी । तभी से लिबासपुर ग्राम सीताराम के बेटे पोतों की अध्यक्षता में है और कागजात में भी इसी प्रकार लिखा हुआ है ।
Libaspur
ग्राम के यथार्थ निवासी भूमिहीन (मजारे) के रूप में चले आ रहे हैं । गांव का कोई भी व्यक्ति एक बीघे जमीन का भी (बिश्वेदार) स्वामी नहीं है । ग्रामवासियों ने जो कष्ट सहन किये उनका लिखना सामर्थ्य से बाहर है । इन कष्टों को तो वे ही जानते हैं जिन्होंने उन्हें सहर्ष सहन किया है । जिन व्यक्तियों को गिरफ्तार किया था उन्हें राई के सरकारी पड़ाव में ले जाकर सड़क पर लिटाकर भारी पत्थर के कोल्हूओं के नीचे डालकर पीस दिया गया । उन कोल्हुओं में से एक कोल्हू का पत्थर अब भी 23वें मील के दूसरे फर्लांग पर पड़ा हुआ है ।
Libaspur-2
वीर योद्धा उदमीराम को पड़ाव के पीपल के वृक्ष पर बांधकर हाथों में लोहे की कीलें गाड़ दीं गईं, उनको भूखा-प्यासा रक्खा गया । पीने को जल मांगा तो जबरदस्ती उसके मुख में पेशाब डाला गया । अंग्रेजों का सख्त पहरा लगा दिया गया । भारत मां का यह सच्चा सपूत 35 दिन तक इसी प्रकार बंधा हुआ तड़फता रहा । इस वीर ने अपने प्राणों की आहुति देकर सदा के लिए हरयाणा प्रान्त और अपने गांव का नाम अमर कर दिया । उसके शव को भी अंग्रेजों ने कहीं छिपा दिया ।
जो व्यक्ति अंग्रेजों के अत्याचार के कारण हुतात्मा (शहीद) हुए उनके सम्बन्धियों की पीढ़ी (कुल) इस प्रकार है –
लिबासपुर के शहीदों की वंशावली - देखिये ऊपर वाले चित्र -
यह लेख लिखने में श्री बलवीरप्रसाद चतुर्वेदी मुख्याध्यापक "संस्कृत हाई स्कूल लिबासपुर" बहालगढ़ से मुझे पूरी सहायता मिली । यह सामग्री एक प्रकार से आप ने ही इकट्ठी करके दी है । इसके लिए मैं आपका आभारी हूं । जब मैं आपके पास पहुंचा तो आपने तुरन्त स्कूल के सब कार्य छोड़कर मुझे यह लेख लिखने के लिए सामग्री लाकर दी और श्री भगवानसिंह आर्य भी लिबासपुर बुलाने से तुरन्त उसी समय आ गये । यह स्कूल पं. मनसाराम जी आर्य जाखौली निवासी ने खोला हुआ है जहाँ बैठकर मैंने यह सामग्री एकत्रित की । आपका सारा जीवन आर्यसमाज के प्रचार में बीता है ।

मुरथल का बलिदान

मुरथल ग्रामवासियों ने भी इसी प्रकार अत्याचारी अंग्रेजों के मारने में वीरता दिखाई थी । अंग्रेज शान्ति होने पर मुरथल ग्राम को भी इसी प्रकार का दण्ड देना चाहते थे । किन्तु नवलसिंह नम्बरदार मुरथल निवासी अंग्रेज सेना को मार्ग में मिल गया । अंग्रेज सेना ने उससे पूछा कि मुरथल ग्राम कहाँ है? तो नम्बरदार ने बताया कि आप उस गांव को तो बहुत पीछे छोड़ आये हैं । उस समय अंग्रेज सेना ने पीछे लौटना उचित न समझा और यह बात नम्बरदार की चतुराई से सदा के लिए टल गई । देशद्रोही सीताराम को इनाम के रूप में लिबासपुर ग्राम सदा के लिए दे दिया और उस बाई जी (ब्राह्मणी) को बहालगढ़ गांव दे दिया । आज भी इन दोनों ग्रामों के निवासी भूमिहीन (मजारे) कृषक के रूप में अपने दिन कष्ट से बिता रहे हैं । देश को स्वतन्त्र हुए 38 वर्ष हो गए किन्तु इनको कोई भी सुविधा हमारी सरकार ने नहीं दी । इनके पितरों (बुजुर्गों) ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने सर्वस्व का बलिदान दिया । किन्तु किसी प्रकार का पारितोषिक तो इनको देना दूर रहा, इनकी भूमि भी आज तक इनको नहीं लौटाई गई । सन् 1957 में स्वतन्त्रता के प्रथम युद्ध की शताब्दी मनाई गई, किन्तु देशभक्त ग्रामों को पारितोषिक व प्रोत्साहन तो देना दूर रहा, किसी राज्य के बड़े अधिकारी ने धैर्य व सान्त्वना भी नहीं दी । मेरे जैसे भिक्षु के पास देने को क्या रखा है, यह दो चार पंक्तियां इन देशभक्तों के लिए श्रद्धांजलि के रूप में इस बलिदानांक में लिख दी हैं । इस प्रकार के सभी देशभक्त ग्रामों के लिए यही श्रद्धा के पुष्प भेंट हैं ।

कुण्डली का बलिदान

सूबा देहली में नरेला के आस-पास लवौरक गोत्र के जाटकुल क्षत्रियों के दस बारह ग्राम बसे हुए हैं । उनमें से ही यह कुण्डली ग्राम सोनीपत जिले में जी. टी. रोड पर है । इस ग्राम के निवासियों ने भी सन् 1857 के स्वतन्त्रता युद्ध में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था । यहां के वीर योद्धाओं ने भी इसी प्रकार अत्याचारी भागने वाले अंग्रेज सैनिकों का वध किया था ।
एक अंग्रेज परिवार ऊँटकराची में बैठा हुआ इस गांव के पास से सड़क पर जा रहा था । वे चार व्यक्ति थे, एक स्वयं, दो उसके पुत्र और एक उसकी धर्मपत्नी । जब वे चारों इस ग्राम के पास आए तो गांव के लोगों ने उँटकराची को पकड़ लिया । ऊँट को भगा दिया और कराची को एक दर्जी के बगड़ में बिटोड़े में रखकर भस्मसात् कर दिया । उस अंग्रेज और उसके दोनों लड़को को मार दिया । उस देवी को भारतीय सभ्यता के अनुसार कुछ नहीं कहा । उसे समुचित भोजनादि की व्यवस्था करके गांव में सुरक्षित रख लिया । जब युद्ध की समाप्ति पर शान्ति हुई तो एक अंग्रेज नरेला के पास पलाश-वन में, जो कुण्डली से मिला हुआ है, शिकार खेलने के लिए आया । उसकी बन्दूक के शब्द को सुनकर अंग्रेज स्त्री आंख बचाकर उसके पास पहुंच गई और उसने अपने परिवार के नष्ट होने की सारी कष्ट-कहानी उसको सुना दी । वह उसे अपने साथ लेकर तुरन्त देहली पहुंच गया । एक किंवदन्ती यह भी है कि उस कराची में 80 हजार का माल था जो उस ग्राम वालों ने लूट लिया । अंग्रेज आदि उस समय कोई कत्ल नहीं किया । वह माल लूटकर इस भय से कभी तलाशी न हो, नरेला भेज दिया गया । कुण्डली ग्राम के कुछ निवासी इस घटना को असत्य भी बताते हैं । कुछ भी हो, इस ग्राम को दण्ड देने के लिए एक दिन प्रातः चार बजे अंग्रेजी सेना ने आकर घेर लिया ।
ग्राम के वस्त्र, आभूषण, पशु इत्यादि सब अंग्रेजी सेना ने लूट लिये और सारे पशु इत्यादि को अलीपुर ले जाकर नीलाम कर दिया । स्त्रियों के आभूषण बलपूर्वक उतारे गये, यहां तक कि भूमि खोद-खोद कर गड़ा हुआ धन भी निकाल लिया गया । बहुत से व्यक्ति तो जो भागने में समर्थ थे, ग्राम को छोड़कर भाग गए । ग्राम के कुछ मुख्य-मुख्य आदमी जो भागे नहीं थे, गिरफ्तार कर लिए गए । कुछ व्यक्ति ग्राम के सर्वनाश का एक कारण और भी बताते हैं । जब अत्याचारी मिटकाफ जो काणा साहब के नाम से प्रसिद्ध था और हरयाणा के वीर ग्रामों को दण्ड देता और आग लगाता हुआ फिर रहा था, वह नांगल की ओर से आया तो कुछ व्यक्ति उसके स्वागत के लिए दूध इत्यादि लेकर नांगल की ओर चले गए । वे मार्ग में ही इसका स्वागत करके अपने गांव को बचाना चाहते थे । किन्तु उस दिन मिटकाफ ने दूसरे किसी ग्राम का प्रोग्राम नांगल, जाखौली इत्यादि का बना लिया । कुण्डली वाले विवश हो लौट आये । जिस समय यह लौट रहे थे, तो अंग्रेजी सरकार की चौकी पर मालिम नाम का व्यक्ति रहता था । उसने ग्रामवासियों से दूध मांगा कि यह दूध मुझे दे जाओ, किन्तु चौधरी सुरताराम जो कठोर प्रकृति के थे, उसे यह कहकर धमका दिया कि तेरे जैसे तीन सौ फिरते हैं, तेरे लिए यह दूध नहीं है । उस व्यक्ति ने कहा - अच्छा, मुझे भी उन तीन सौ में से एक गिन लेना, समय पड़ने पर मैं भी आप लोगों को देखूंगा । उसी व्यक्ति ने मिटकाफ साहब को सूचना दी कि अंग्रेजों को कुण्डली ग्राम वालों ने मारा है । और अंग्रेज अपनी सेना लेकर ग्राम पर चढ़ आये । निम्नलिखित व्यक्तियों को गिरफ्तार किया –

1- श्री सुरताराम जी, 2- उनक पुत्र जवाहरा, 3- बाजा नम्बरदार 4- पृथीराम 5- मुखराम 6- राधे 7- जयमल । कुछ व्यक्ति जो और भी गिरफ्तार हुए थे, उनके नाम किसी को याद नहीं । यह लोकश्रुति है कि 14 व्यक्ति गिरफ्तार किए गए थे - ग्यारह को दण्ड दिया गया और तीन को छोड़ दिया गया । इनमें से 8 को एक-एक वर्ष का कारागृह का दण्ड मिला । तीन को अर्थात् सुरताराम, उनके पुत्र जवाहरा तथा बाजा नम्बरदार को आजन्म काले पानी का दण्ड दिया गया । इनको अण्डमान द्वीप (कालेपानी में) भेज दिया गया । वहां पर चक्की, कोल्हू, बेड़ी इत्यादि भयंकर दण्ड देकर खूब अत्याचार ढ़ाये गये । अतः ये तीनों वीर अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए बलिवेदी पर चढ़ गये, इनमें से कोई लौटकर नहीं आया । इसके विषय में लोगों ने बताया कि जब इनको गिरफ्तार करके ले जाने लगे तो बाजा नम्बरदार ने सुरता नम्बरदार को कहा - यह ग्राम सुख से बसे, हम तो लौटकर आते नहीं । सुरता ने कहा - बाजिया, तू तो यों ही घबराता है, मेरे माथे में मणि है (अर्थात् मैं भाग्यवान् हूं), हम अलीपुर व देहली से ही छूटकर अवश्य घर लौट आयेंगे, हमारा दोष ही क्या है ? बात यथार्थ में यह है कि अंग्रेजों ने खूब यत्न किया । इस ग्राम के द्वारा अंग्रेजों के कत्ल के अभियोग को सिद्ध नहीं क्या जा सका । सुरता की बात सुनकर बाजा ने कहा - जिनके ढोर, पशुधन आदि ही नहीं रहा, वह लौटकर कैसे आयेगा ? हुआ भी ऐसा ही । ये तीनों बहीं पर समाप्त हो गए । जो इस ग्राम के वीर स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर चढ़े, उन की पीढ़ियां निम्न प्रकार से हैं -

कुंडली के शहीदों की वंशावली
Kundali Martyrs
आजकल कुंडली ग्राम के स्वामी सोनीपत निवासी ऋषिप्रकाश आदि हैं, यह ग्राम उनको किस प्रकार मिला, इसके विषय में यह किंवदन्ती है कि सोनीपत निवासी मामूलसिंह नाम का ब्राह्मण (मोहर्रिर) लेखक था । सड़क पर एक आदमी की लाश पड़ी थी । कोई यह कहता है कि वह किसी अनाथ का ही शव था । उसके ऊपर वस्त्र डालकर उसके पास बैठकर मामूलसिंह रोने लगा । जब उसके पास से कुछ अंग्रेज गुजरे तो कहने लगा - यह मेरा आदमी आप लोगों की सेवा में मर गया । इसी के फलस्वरूप अंग्रेजों ने प्रसन्न होकर उसे पहले तो खामपुर ग्राम पारितोषिक के रूप में दिया था किन्तु पीछे कुण्डली ग्राम का स्वामी बना दिया । जिस समय नोटिश (विज्ञापन) लगाया गया था कि यह गांव तीन वर्ष के लिए जब्त किया जा रहा है और मामूलसिंह को दिया जा रहा है, ग्राम वालों का कहना है कि उस समय उसने अपनी चालाकी, दबाव अथवा लोभ से दबा और सिखाकर सदा के लिए अपने नाम लिखा लिया । ग्राम के लोगों ने अनेक बार मुकदमा भी लड़ा और कलकत्ते तक भाग दौड़ भी की, किन्तु नकल ही नहीं मिली । मुकदमे में यह झूठ बोल दिया गया कि यह ग्राम मेरे बाप दादा का है, हमारी यह पैतृक सम्पत्ति है । इसीलिए आज तक भी मामूलसिंह के व्यक्ति इस ग्राम के स्वामी हैं और गांव के देशभक्त कृषक जो ग्राम के निवासी और स्वामी हैं, भूमिहीन (मजारे) के रूप में अनेक प्रकार से कष्ट सहकर अपने दिन काट रहे हैं । मामूलसिंह के बेटे पोतों ने इस ग्राम को खूब तंग किया । अनेक प्रकार के पूछी आदि टैक्स लगाये, चौपाल तक नहीं बनाने दी । ग्रामवासियों ने भी खूब संघर्ष किया । अनेक बार जेल में गये । अन्त में चौपाल तो बनाकर ही छोड़ी । श्री रत्नदेव जी आर्य, जो सुरता और जवाहरा के परिवार में से हैं, इन्होंने ग्राम पर होने वाले अत्याचारों को दूर करने के लिए संघर्षों में नेतृत्व किया और खूब सेवा की । इस ग्राम के निवासी प्रायः सभी उत्साही हैं । अंग्रेजी राज्य के रहते इस ग्राम के पढ़े लिखे को किसी भी सरकारी नौकरी में नहीं लिया गया । सभी प्रकार के कष्ट यह लोग सहते रहे और यह आशा लगाये बैठे थे कि जब देश स्वतन्त्र होगा तब हमारे कष्ट दूर हो जायेंगे । जब सन् 47 में 15 अगस्त को देश को स्वतन्त्रता मिली और लाल किले पर तिरंगा झण्डा फहराया गया उस समय यह गांव बड़े हर्ष में मग्न था कि अब हमारे भी सुदिन आ गये हैं । किन्तु आज देश को स्वतन्त्र हुए 38 वर्ष हो चुके हैं, यहां के ग्रामवासी पहले से भी अधिक दुःखी हैं । हमारे राष्ट्र के कर्णधारों व राज्याधिकारियों का इनके कष्टों की ओर कोई ध्यान नहीं । भगवान् ही इनके कष्टों को दूर करेगा । कुण्डली ग्राम के निवासी वृद्ध जीतराम जी जिनकी आयु 85 वर्ष है, तथा सुरता और जवाहरा के परिवार के श्री महाशय रत्नदेव जी और उनके बड़े भाई आशाराम जी ने इस ग्राम के इतिहास की सामग्री इकट्ठी करने में मुझे पूरा सहयोग दिया है, इन सबका मैं आभारी हूँ ।

खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर, सराय आदि अनेक ग्राम हैं जिन्होंने सन् 1857 के युद्ध में बड़ी वीरता से अपने कर्त्तव्य का पालन किया था । जब कभी मुझे समय मिला, मेरी इच्छा है मैं हरयाणा का एक बहुत बड़ा इतिहास लिखूं, तब इनके विषय में विस्तार से लिखूंगा । खामपुर आदि ग्राम भी जब्त कर लिए गए थे । ग्राम खामपुर दिल्ली निवासी एक ब्राह्मण लछमनसिंह के बाप दादा को दिया गया था । आज भी वह परिवार उस ग्राम का स्वामी है । खामपुर ग्राम के जाट जो निवासी थे वे भाग गये थे, वह खेड़े आदि अन्य ग्रामों में बसते हैं । इस ग्राम में तो अन्य मजदूरी करने वाले लोग बसते हैं । अलीपुर ग्राम के आदमियों को भी लिबासपुर के निवासियों के समान सड़क पर डालकर कोल्हू से पीस दिया गया था और अलीपुर ग्राम को बुरी तरह लूटकर जलाकर राख कर दिया गया था । अलीपुर ग्राम को जब्त करके दिल्ली के कुछ देशद्रोही मुसलमानों को दे दिया गया था । उन मुसलमानों के परिवार ने जो इस ग्राम के स्वामी थे, चरित्र संबन्धी गड़बड़ कुण्डली ग्राम में आकर की । कुंडली ग्राम के दलितों ने इन पापियों के ऊपर अभियोग चलाया और उसी अभियोग में विवश होकर वह अलीपुर ग्राम मुसलमानों को जाटों के हाथ बेचना पड़ा । हमीदपुर ग्राम भी जब्त करके मुसलमानों को दिया गया था । इसी प्रकार ही ऐसे देशभक्त ग्रामों को जब्त करके देशद्रोहियों को दे दिया गया था । इसके विषय में विस्तार से कभी समय मिलने पर लिखूंगा ।
अलीपुर ग्राम की घटना जो माननीय वयोवृद्ध पं० बस्तीराम जी आर्योपदेशक के मुखारविन्द से सुनी, निम्न प्रकार से है ।

अलीपुर की घटना

अलीपुर की घटना - मानेलुक नाम का एक अंग्रेज घोड़े पर सवार अलीपुर ग्राम से जा रहा था । वह प्यास से अत्यन्त व्याकुल था । उसने एक किसान को, जो सड़क के पास ही अपने खलिहान (पैर) में गाहटा चला रहा था, संकेत से जल पीने को मांगा । किसान को दया आई और वह घड़े में से जल लेने के लिए गाहटा छोड़कर चल दिया किन्तु उस समय घड़े में जल न मिला । विवश होकर किसान अपने घड़े को उठाकर कुएं पर जल भरने को चला गया । किसान के इस सहानुभूति पूर्ण व्यवहार को देखकर अंग्रेज विचारने लगा इस व्यक्ति ने मेरे लिए अपना काम भी छोड़ दिया । वह अंग्रेज उसके खलिहान में आ गया और घोड़े से उतर कर, यह समझ कर कि किसान के कार्य में हानि न हो, उसमें घुस गया और बैलों को हांकना प्रारम्भ कर दिया और अपना घोड़ा पास के किसी वृक्ष से बांध दिया । उसी समय एक दूसरा अंग्रेज घुडसवार, जिसका नाम गिलब्रट था, उसी सड़क से जा रहा था । उसने यह समझा कि मानेलुक से बलपूर्वक गाहटा हंकवाया जा रहा है और वह शीघ्रता से वहां से भागकर चला गया और अपने डायरी में अलीपुर ग्राम के विषय में अंग्रेजों पर अत्याचार करने के लिए नोट लिख दिया, अर्थात् अलीपुर पर अत्याचार का आरोप लगाया । वह गिलब्रट नाम का अंग्रेज जो वहां से भय के मारे शीघ्रता से भाग गया, उसने भय के कारण सत्यता का अन्वेषण भी नहीं किया । इधर जब किसान जल का घड़ा भरकर लाया तो अंग्रेज गाहटे में खड़ा था और बैल उससे बिधक कर (डरकर) भाग गये थे । किसान ने अंग्रेज को सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में कहा - आपने ऐसा कष्ट क्यों किया ? उस किसान ने मानेलुक अंग्रेज के कपड़े झाड़े, धूल साफ की, जल पिलाया और रोटी भी खिलाई । इस प्रकार उसकी अच्छी सेवा की और वह अंग्रेज चला गया । उस अंग्रेज (मानेलुक) ने डायरी में लिखे गए अपने नोट में अलीपुर के विषय में बहुत अच्छा लिखा । शान्ति होने के पश्चात् गिलब्रट की डायरी, जिसमें अलीपुर के बारे में बुरा लिखा हुआ था, उसी के अनुसार अलीपुर ग्राम को बुरी तरह लूटा गया और मनुष्य, पशु आदि प्राणियों सहित अग्नि में जलाकर भस्मसात् कर दिया गया । कुछ दिन पीछे मानेलुक की सच्ची रिपोर्ट भी अंग्रेजों के आगे पेश हुई । तब अंग्रेजों को ज्ञात हुआ कि जिस अलीपुर ग्राम को पारितोषिक मिलना चाहिए था उसको तो भीषण अग्निकांड में जला दिया गया । यह अंग्रेजों की मूर्खता का एक उदाहरण है और हरयाणा के ग्रामों पर दोष लगाया जाता है कि यहां के किसानों ने सब अंग्रेज स्त्रियों से गाहटा चलवाया था । यह सब बात इस अलीपुर के गाहटे की घटना के समान मिथ्या और भ्रम फैलाने वाली है । भारतीयों ने अंग्रेज महिलाओं और बच्चों पर कभी अत्याचार नहीं किये ।

अलीपुर का बलिदान
अलीपुर ग्राम कई शताब्दियों से बड़ी सड़क जी. टी. रोड पर बसा हुआ है । इसी सड़क से अंग्रेजों की सेनायें गुजरती थीं । यहां के वीर लोगों ने भी सन् 1857 के स्वातन्त्र्य संग्राम में खूब बढ़ चढ़ कर भाग लिया और इस सड़क पर गुजरने वाले अनेक अत्याचारी अंग्रेजों को काल के गाल में पहुंचाया गया । यही नहीं, इस स्वतन्त्रता समर में बलिदान देने वाले वीरों की संख्या इस ग्राम में सबसे बढ़कर है । अलीपुर ग्राम में 1857 में सड़क के निकट ही सरकारी तहसील विद्यमान थी और उसके पास ही बाहर बाजार था । क्रांति के समय ग्राम के लोगों ने तहसील में घुसकर सब सरकारी कागजों को फूंक दिया और बाजार को भी लूट लिया । ऐसा अनुमान है कि बाजार में जो दुकान थीं, या तो वे सरकार की थी या सरकारी पिट्ठुओं की थी । इसलिए उन्हें लूटा गया । तहसील पर जिस समय जनता के लोगों ने आक्रमण किया तो तहसील के सरकारी नौकरों ने अवश्य कुछ न कुछ विरोध किया होगा । उसके फलस्वरूप युद्ध हुआ और वीरों ने गोलियां चलाईं । उन गोलियों के निशान आज भी लकड़ी के किवाड़ों पर विद्यमान हैं । उन्हीं दिनों अनेक अंग्रेज ग्रामीण योद्धाओं के द्वारा मारे गये ।
अलीपुर ग्राम को दण्ड देने के लिए मिटकाफ (काना साहब) सेना लेकर अलीपुर पहुंच गया । उसने अपनी सेना का शिविर दो कदम्ब (कैम) के वृक्षों के नीचे लगाया जो आज भी विद्यमान हैं । ये ऐतिहासिक वृक्ष अंग्रेजों के अत्याचार के मुंह बोलते चित्र हैं । गांव के चारों ओर सेना ने घेरा डाल दिया । तोपखाना भी लगा दिया । किसी व्यक्ति को भी गांव से बाहर नहीं निकलने दिया गया । सेना के बड़े बड़े अधिकारी गांव में घुस गए और गांव के 70-75 चुने हुए व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया गया । हंसराम नाम का एक व्यक्ति उस समय हलुम्बी ग्राम की ओर शौच गया हुआ था, उसे पकड़ने के लिए कुछ अंग्रेज जंगल में ही पहुंच गए और उसे गिरफ्तार कर लिया । वह खेड़े के निकट कुण्डों के पास पकड़ा गया । वह अत्यन्त स्वस्थ, सुन्दर आकृति का युवक था । पकड़ने वाले अंग्रेज अधिकारी के मन में दया आ गई तथा उसकी सुन्दर आकृति व स्वास्थ्य से प्रभावित होकर उसे छोड़ दिया । किन्तु उस युवक ने कहा कि मैं तो अपने साथियों के साथ रहना चाहता हूँ, जहां वे जायेंगे मैं भी वहीं जाऊंगा । मेरा कर्त्तव्य है कि मैं अपने साथियों के साथ जीऊँ और साथियों के साथ ही मरूँ । अंग्रेज सिपाहियों ने उसे बहुत छोड़ना चाहा और उसे भागने के लिए बार बार प्रेरणा की किन्तु उसने भागने से इन्कार कर दिया और गिरफ्तार हुए साथियों के साथ मिल गया । अंग्रेज 70-75 व्यक्तियों को गिरफ्तार करके लाल किले में ले गये और उन सब को फांसी पर चढ़ा दिया गया ।
यह घटना 1857 के मई मास के अन्तिम सप्ताह की है ।
लाल किले में से हंसराम को घसियारे के रूप में अंग्रेजों ने निकालना चाहा । वह अंग्रेज उसके सुन्दर शरीर तथा स्वास्थ्य को देखकर उसे छोड़ना चाहता था, किन्तु उसने फिर इन्कार कर दिया । तो फिर उसे भी फांसी पर चढ़ा दिया ।
मुहम्मद नाम का एक मुसलमान किसी प्रकार बचकर भाग आया । वह फिर सकतापुर भोपाल राज्य में जाकर बस गया ।
कुछ व्यक्तियों का ऐसा भी मत है कि इन व्यक्तियों को फांसी नहीं दी गई थी किन्तु इन सब को पत्थर के कोल्हू के नीचे सड़क पर डालकर पीसकर मार डाला गया था । वे पत्थर के कोल्हू अभी तक इस सड़क पर पड़े हुए हैं ।
जिन व्यक्तियों को फांसी दी गई उनमें से तुलसीराम और हंसराम के अतिरिक्त और किसी के भी नाम का पता यत्न करने पर भी नहीं चल सका । अलीपुर ग्राम का भाट सोनीपत का निवासी है जो आजकल जाखौली ग्राम में रहता है । उसकी पोथी में पैंतीस व्यक्तियों के नाम मिलते हैं । उस विश्वम्भरदयाल भाट के पास जाखौली इन्हीं नामों को जानने के लिये मैं गया, किन्तु जिस पोथी में ये नाम हैं, उस पोथी को उस भाट का पुत्र लेकर किसी गांव में अपने यजमानों के पास चला गया था, दुर्भाग्य से वे नाम नहीं मिल सके ।
अलीपुर ग्राम में भी मैं इसी कार्य के लिए तीन बार गया । जिन घरों में इन नामों के मिलने की आशा थी, खोज करवाने पर भी वे नाम नहीं मिल सके । यह हमारा दुर्भाग्य ही रहा कि जिन हुतात्मा वीरों ने हंसते हंसते देश की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया, आज उनके नाम भी हमें उपलब्ध न हो सके ।
जिस किसी ने भी 1857 के स्वातन्त्र्य समर के विषय में लिखा है, हरयाणा प्रान्त के विषय में दो चार शब्द लिखने का भी कष्ट नहीं किया । यथार्थ में यह युद्ध हरयाणा प्रान्त के सैनिकों ने ही लड़ा था । सभी रिसाले और पलटनों में, मेरठ आदि सभी छावनियों में हरयाणा के वीर सैनिक ही अधिक संख्या में थे । उस समय तक हरयाणा प्रान्त के सभी ग्रामों में पंचायती सैनिक थे । सभी गांवों में अखाड़े चलते थे जहां पंचायती सैनिक तैयार किए जाते थे, किसी प्रकार की आपत्ति पड़ने पर जो धर्मयुद्ध में भाग लेते थे । अलीपुर गांव के जो नवयुवक इस क्रांति में हंसते-हंसते बलिवेदी पर चढ़ गये वे भी इसी प्रकार के पंचायती सैनिक थे । इन सबको फांसी देने के लिए जिस समय गिरफ्तार किया गया, तोपों के द्वारा गांव पर गोले बरसाये गए । जिस समय तोपें चलीं, उस समय तोपें चलाने वाला कोई अंग्रेज अफसर दयालु स्वभाव का था । उसने इस ढ़ंग से तोपें चलवाईं कि तोप के गोले गांव के ऊपर से गुजरकर जंगल में गिरते रहे । ग्राम नष्ट होने से बच गया । कुछ का ऐसा भी मत है कि ग्राम को लूटा भी गया । जितने व्यक्ति इस ग्राम के मारे गये, उनमें भंगी से लेकर ब्राह्मण तक सभी सम्मिलित थे । जाट उनमें कुछ अधिक संख्या में थे ।
एक पटवारी और एक नम्बरदार ने, जब उनको बहुत तंग किया गया, तब इन सब लोगों के नाम लिखवाये थे जिनको फांसी दी गई थी । फांसी आने के बाद जो देवियां विधवा हो गईं थीं, उन्होंने उस नम्बरदार के घर के आगे आकर अपनी चूड़ियां फोड़कर डाल दीं । इस प्रकार उनकी सहानुभूति में ग्राम की अन्य देवियों ने भी अपनी चूड़ियां फोड़कर ढ़ेर लगा दिया । यहां यह लोकश्रुति है कि उस समय उस नम्बरदार के घर के सामने सवा मन चूड़ियों का ढ़ेर लग गया ।
जिस समय ग्राम पर यह आपत्ति आई, ग्राम के सब बाल-बच्चे, स्त्री और बूढ़े भागकर हलुम्बी ग्राम में चले गये । नवयुवक सब ग्राम में ही विद्यमान थे जिनमें से गिरफ्तार करके पचहत्तर को फांसी दी गई । ग्राम पर यही दोष लगाया गया था कि इन्होंने तहसील को जलाया और कुछ अंग्रेजों का वध किया था । एक दो व्यक्तियों ने ऐसा भी बताया कि दोनों प्रकार के प्रमाण-पत्र गांव में मिले । ग्राम ने कुछ अंग्रेजों को मारा और कुछ को बचाया भी । इसलिए एक अंग्रेज स्त्री के निषेध करने पर इस गांव को जलाया नहीं गया और न ही जब्त किया गया । बारह वर्ष पूर्व ही यह गांव कुछ नम्बरदारों के सरकारी लगान स्वयं खा जाने पर एक मुसलमान के पास चार हजार रुपये में गिरवी रख दिया गया था । क्रांति युद्ध के पीछे यहां के निवासियों ने रुपये देकर इसे खरीद लिया । जो अंग्रेज अलीपुर में मारे गए थे, उनकी कब्रें अलीपुर के पास ही बना दी गईं थीं, जो कुछ वर्ष पहले विद्यमान थीं ।
अंग्रेज अफसरों की आज्ञा से सिक्ख सेना ने बादली ग्राम के आस पास के बारह ग्रामों के अहीर आदि सभी कृषकों के सब पशु हांक लिए थे । उस समय तोताराम नाम के एक चतुर व्यक्ति ने अपने अलीपुर ग्राम के सब निवासियों को उत्साहित किया और युद्ध करके सिक्खों से अपना सब पशुधन छुड़वा लिया और उन ग्रामों के, जिनके ये पशु थे, उनको ही सौंप दिये । किन्तु वह चतुर वीर तोताराम इस युद्ध में मारा गया । अब तक बादली, समयपुर आदि ग्रामों के निवासी उस उपकार के कारण अलीपुर के निवासियों का बड़ा आदर करते हैं ।
पीपलथला, सराय आदि ग्रामों को भी इसी प्रकार लूटा और जलाया गया । इसी सराय ग्राम (भड़ोला) के पास आज भी एक अंग्रेज अफसर का स्मारक बना हुआ है जो उस समय ग्रामवासियों द्वारा मारा गया था । इस सराय ग्राम में कभी एक छोटी सी गढ़ी (दुर्ग) थी जो आज खण्डहर के रूप में पड़ी हुई है, केवल उसके दो द्वार खड़े हुए हैं । अनुमान यही है कि इस क्रान्तियुद्ध में ये अंग्रेजों द्वारा ही नष्ट किये गए ।
हरयाणा के सैंकड़ों ग्रामों ने सन् 1857 के युद्ध में इसी प्रकार भाग लिया और पीछे अंग्रेजों द्वारा दंडित हुए । इनके विषय में मैं समय मिलने पर लिखूँगा ।

रोहट गांव

छोटे थाने वाले भागे हुए अंग्रेजों को ढ़ूंढ़-ढ़ूंढ़ कर मारते थे । एक दिन नहर की पटरी पर एक अंग्रेज अपने एक बच्चे और स्त्री सहित घोड़ा गाड़ी में आ रहा था, यह नहर का मोहतमीम था । इसके तांगे से एक अशर्फियों की थैली नीचे गिर गई । स्त्री स्वभाव के कारण वह अंग्रेज स्त्री उसे उठाने के लिए उतरकर पीछे चली गई । थाने ग्राम के निवासी पहले ही पीछे लगे हुए थे । उन्होंने वह थैली छीन ली और उस अंग्रेज स्त्री को न जाने मार दिया या कहीं लुप्त कर दिया । आगे चलकर रोहट ग्राम का रामलाल नाम का ठेकेदार उसे मिला जो इसे जानता था । उसने उस मोहतमीम को बचाने के लिए बच्चे सहित घास के ढ़ेर में छिपा दिया, बाद में अपने घर ले गया । थाने ग्राम के लोगों को यह कह दिया कि तांगा आगे चला गया, उसी में अंग्रेज है । वह ग्राम में कई दिन रहा । फिर उसको ग्राम के बाहर उसकी इच्छा के अनुसार आमों के बाग में रखा । वहां वह आम के वृक्ष पर बन्दूक लिए बैठा रहता था । पचास ग्राम वाले भी उसकी रक्षा करते थे । शान्ति होने पर उसे सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया । रोहट ग्राम की 14 वर्ष तक के लिए नहरी और कलक्ट्री उघाई माफ कर दी गई । बोहर और थाने ग्राम के लोगों ने अंग्रेजों को मारा था, अतः इन दोनों ग्रामों को दण्डस्वरूप जलाना चाहते थे किन्तु रामलाल ने कहा था कि पहले मुझे गोली मारो फिर इन ग्रामों को दण्ड देना । रामलाल के कहने पर यह दोनों ग्राम छोड़ दिये गये । रामलाल को एक तलवार, प्रमाणपत्र और मलका का एक चित्र पुरस्कार में दिया गया । उस रामलाल ठेकेदार के लिए यह लिखकर दिया कि इसके परिवार में से कोई मैट्रिक पास भी हो तो उसे अच्छा आफीसर बनाया जाये । वह अंग्रेज ग्राम वालों की सहायता से शान्ति होने पर करनाल पहुंच गया । मार्ग में कलाये ग्राम में उसका लड़का मर गया । गाड़ने के लिए ग्राम वालों ने भूमि नहीं दी । एक किसान ने भूमि दी जिसमें उसकी कब्र बना दी गई । चिन्हस्वरूप उसका स्मारक बना दिया गया । रोहट ग्राम में सर्वप्रथम छैलू को जेलदारी मिली । सुजान, छैलू ठेकेदार और रामलाल ठेकेदार को प्रमाणपत्र दे दिया गया ।

वीर अमरसिंह

अमरसिंह सुनारियां ग्राम (रोहतक शहर से थोड़ी दूर) का निवासी था । वह डी. सी. साहब के यहां (रोहतक में) चपरासी का कार्य करता था । वह डी. सी. चरित्रहीन था । अमरसिंह को यह बुरा लगा और उसने त्यागपत्र देकर अपना वेतन मांगा । डी.सी ने उसे वेतन नहीं दिया । इस पर अनबन बढ़ गई ।
अमरसिंह ग्राम में जाकर बल्लू लुहार से कसोला लेकर आया और डी.सी की कोठी में जाकर रात को उसे जगाकर कत्ल कर दिया । कसोला वहीं डाल दिया । उसकी मेम को नहीं मारा, उसे स्त्री समझकर छोड़ दिया । इसके बाद नीम पर चढ़कर जब वह बाहर निकला तो मेम ने शिकारी कुत्ते छोड़ दिये, वह उन कुत्तों ने फाड़ लिया । वह ग्राम में चला गया ।
अंग्रेजों ने वहाँ जाकर सारे गांव को तोपों से उड़ाना चाहा किन्तु अमरसिंह स्वयं उपस्थित हो गया । अंग्रेज उसे घोड़े के पीछे बांधकर ले गए और उसके ऊपर दही छिड़क कर शिकारी कुत्तों से फड़वाया गया । यह वृत्तान्त कचहरी में लिखा हुआ है ।

हांसी का शहीद हुकमचन्द

(जिसको घर के सामने ही फाँसी पर लटका दिया गया)
1857 की महान् क्रंति ने भारत के कोने कोने में उथल पुथल मचा दी थी । अनेक देशभक्त वीर हंसते-हंसते आजादी की बलिवेदी पर अपना जीवन न्यौछावर कर गए । इतिहास प्रसिद्ध हांसी नगर पृथ्वीराज चौहान के समय से अपनी विशेषता रखता है । सन् 1857 में भी हांसी नगर किसी से पीछे नहीं रहा । दिवंगत दुनीचन्द के सुपुत्र श्री हुकमचन्द जी (जो हांसी, हिसार और करनाल के कानूनगो थे) को मुगल बादशाह ने 1841 में विशिष्ट पदों पर नियुक्त करके इन प्रान्तों का प्रबन्धक बना दिया ।
जब भारतवासी अंग्रेजों की परतन्त्रता से स्वतन्त्र होने के लिए संघर्ष कर रहे थे तब श्री हुकमचन्द जी ने फारसी भाषा में मुगल बादशाह जाफर को निमंत्रण पत्र भेजा कि वह अपनी सेना लेकर यहां के अंग्रेजों पर चढ़ाई कर दे ।
सितम्बर 1857 के अन्तिम सप्ताह में जब शाह जफर को अंग्रेजों ने बन्दी बना लिया तब उनकी विशेष फाइल में वह निमन्त्रण पत्र मिला जो कि हुकमचन्द ने बादशाह को भेजा था । हिसार की सरकारी फाइल में वह पत्र आज तक भी विद्यमान है ।
देहली के अंग्रेज कमिश्नर ने वह पत्र हिसार डिवीजन के कमिश्नर को उस पर तत्काल कार्यवाही हेतु भेज दिया । किन्तु सरकार का विरोध करने के अपराध में 19 जनवरी 1858 को श्री हुकमचन्द को उनके घर के सामने फांसी पर लटका दिया गया । उनके सम्बन्धियों को उनका शव तक भी नहीं दिया गया । लाला हुकमचन्द के शव को जलाने के स्थान पर भूमि में दफना कर हमारी धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात किया और उनकी चल और अचल सम्पत्ति भी जब्त कर ली गई । उस समय अपने देश से प्रेम करने वालों को गद्दार बताकर बिना अपराध असंख्य लोगों को फांसी पर चढ़ाकर अंग्रेजों ने अपनी पिपासा को शान्त किया ।
लाला हुकमचन्द जी के दो भाई और थे, किन्तु केवल उन्हीं के भाग की 84-85 एकड़ भूमि जब्त कर ली गई जो अंग्रेजों के चाटुकारों ने आपस में बांट ली । शेष दोनों की पितृ-संपत्ति अब तक चली आ रही है ।
50 वर्ष की आयु में हुकमचन्द जी को फांसी पर लटकाया गया था । उनके दो सुपुत्र एक 8 वर्ष का और दूसरा केवल 19 दिन का ही था । कोई 400 तोला सोना, 4 हजार तोले चांदी, अनेक गाय, भैंस, ऊँट आदि पशु और अन्न तथा घर का सामान अल्पतम मूल्य पर नीलाम कर दिया गया ।
श्री हुकमचन्द जी के दस कुटुम्ब अब भी फल फूल रहे हैं । हरयाणा प्रान्त का इतिहास ऐसे ही वीरों के बलिदानों से भरपूर है ।

झज्जर के नवाब

रोहतक के दक्षिण में 22 मील व दिल्ली के पश्चिम-दक्षिण में 36 मील झज्जर नाम का प्रसिद्ध कस्बा है । यह कस्बा एक हजार साल पहले झज्झू नाम के जाट ने बसाया था और उसी के नाम से झज्जर प्रसिद्ध हुआ । मुगलकाल में यह शहर अपने व्यापार के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध था । झज्जर, रिवाड़ी, भिवानी एक त्रिकोण बनाते हैं, जो आज की तरह पूर्व काल में भी व्यापारिक केन्द्र थे । अकेले झज्जर शहर में 300 अत्तारों और गन्धियों की दुकानें थीं । झज्जर से दिल्ली जाने वाली सड़क पर शहर से बाहर बादशाह शाहजहां के जमाने की अनेक पुरानी इमारतें व मकबरे हैं जिनके द्वारों पर फारसी लिपि में अनेक वाक्य खुदे हुए हैं । उन भवनों व मकबरों के बीच में सदियों पुराना एक बहुत बड़ा पक्का तालाब है, जहां म्युनिसिपैलिटी की ओर से पशुओं का मेला भरता (लगता) है ।
हरयाणा का यह प्रदेश सन् 1718 में बादशाह फरुखसियर ने अपने वजीर अलीदीन को जागीर में दिया । सन् 1732 में फरुखनगर के नवाब को दे दिया । सन् 1760 में महाराजा सूरजमल (भरतपुर) ने फरुखनगर के नवाब मूसा खां को हराकर यह प्रदेश उससे छीन लिया । इस समय दिल्ली नगर की चारदीवारी तक उनका राज्य था । बादली नाम का प्रसिद्ध गांव उनकी एक तहसील था । सन् 1754 में बलोच सरदार बहादुरखां को बहादुरगढ़ बादशाहों से जागीर में मिला । झज्जर बेगम सामरू के पति वेनरेल साहब के कब्जे में आ गया । गोहानामहमरोहतकखरखौदा आदि दिल्ली के वजीर नब्ज खां के कब्जे में थे । सन् 1790 में बेगम सामरू की मुलाजमत में रहने वाले अंग्रेज इस्किन्दर ने उत्तर हिन्दुस्तान में जाटों, मराठों, सिक्खों की खींचातानी देखकर हांसी, महमबेरी, रोहतक, झज्जर पर कब्जा कर लिया और जहाजगढ़ में किला बनाकर अपना सिक्का भी चलाया । 1803 में अंग्रेजों ने मराठों को हराया । दिल्ली के साथ हरयाणा पर भी कब्जा जमा लिया । झज्जर, बल्लभगढ़दुजाना आदि रियासतें कायम कीं । हरयाणा का बाकी हिस्सा 1836 तक गवर्नर बंगाल की मातहती में बंगाल के साथ रहा । इसके बाद आगरे के नये सूबे में शामिल कर दिया गया ।
1857 में हरयाणा में उस समय अनेक राजा राज्य करते थे । झज्जर इलाके में अब्दुल रहमान खां नवाब की नवाबी थी । झज्जर प्रान्त झज्जर, बादलीदादरीनारनौलबावल और कोटपुतली आदि परगनों में विभाजित था । झज्जर का नवाब जवान किन्तु भीरू प्रकृति का था । सदैव नाच-गान, राग-रंग व भोग-विलास में ही फंसा रहता था । इसके दुराचार से प्रजा उस समय प्रसन्न नहीं थी, फिर भी उसका राज्य अंग्रेजों की अपेक्षा अच्छा था । ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी नवाब के बख्शी थे । दीवान रामरिछपाल झज्जर निवासी नवाब के कोषाध्यक्ष (खजान्ची) थे । नवाब प्रकट रूप से तो दिल्ली बादशाह बहादुरशाह की सहायता कर रहा था क्योंकि हरयाणा की सारी जनता इस स्वतन्त्रता युद्ध में बड़े उत्साह से भाग ले रही थी । अतः नवाब भी विवश था किन्तु भीरु होने के कारण उसे यह भय था कि कभी अंग्रेज जीत गए तो मेरी नवाबी का क्या बनेगा । इसलिए गुप्त रूप से धन से अंग्रेजों की सहायता करना चाहता था । अपने दीवान मुन्शी रामरिछपाल द्वारा 22 लाख रुपये इसने अंग्रेजों को सहायता के लिए गुप्त रूप से भेजने का प्रबन्ध किया । मुन्शी रामरिछपाल ने ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी को जो एक प्रकार से झज्जर राज्य के कर्त्ता-धर्त्ता थे, यह भेद बता दिया । ठाकुर स्यालुसिंह ने मुन्शी रामरिछपाल को समझाया कि नवाब तो भीरु और मूर्ख है । अंग्रेजों को रुपया किसी रूप में भी नहीं मिलना चाहिये । हम दोनों बांट लेते हैं । उन दोनों ने ग्यारह-ग्यारह लाख रुपया आपस में बांट लिया, अंग्रेजों के पास नहीं भेजा ।
ठाकुर स्यालुसिंह ने उस समय यह कहा - यदि अंग्रेज जीत गए तो नवाब मारा जायेगा, हमारा क्या बिगाड़ते हैं, यदि अंग्रेज हार ही गये तो हमारा बिगाड़ ही क्या सकते हैं । नवाब के भीरु और चरित्रहीन होने का कारण लोग यों भी बताते हैं कि नवाब अब्दुल रहमान खां किसी बेगम के पेट से उत्पन्न नहीं हुआ किन्तु वह किसी रखैल स्त्री (वेश्या) का पुत्र था । उसके विषय में एक घटना भी बताई जाती है । इसके चाचा का नाम समद खां था । नवाब ने अपने इसी चाचा की लड़की के साथ विवाह किया था । समदखां इससे अप्रसन्न रहता था, इससे बोलता भी नहीं था । समदखां वैसे बहादुर और अभिमानी था । एक दिन नवाब ने अपनी बेगम को जो समदखां की लड़की थी, चिढ़ाने की दृष्टि से यह कहा कि समदखां की औलाद की नाक बड़ी लम्बी होती है । उसी समय बेगम ने जवाब दिया - जब मेरा विवाह (वेश्यापुत्र) आपके साथ हो गया तो क्या अब भी समदखां की औलाद की नाक लम्बी रह गई ? नवाब ने इसी बात से रुष्ट होकर बेगम को तलाक दे दिया । समदखां नवाब से पहले ही नाराज था, इस बात से वह और भी नाराज हो गया । वह नवाब से सदैव रुष्ट रहता था और कभी बोलता नहीं था । उन्हीं दिनों अंग्रेज फौजी अफसर मिटकाफ साहब जो आंख से काना था, किन्तु शरीर से सुदृढ़ था, छुछकवास अपने पांच सौ सशस्त्र सैनिक लेकर पहुंच गया और झज्जर नवाब की कोठी में ठहर गया । वहां नवाब झज्जर को मिलने के लिए उसने सन्देश भेजा । झज्जर का नवाब मिटकाफ साहब से मिलने के लिए हथिनी पर सवार होकर जाना चाहता था । उसकी 'लाडो' नाम की हथिनी थी, उसने सवारी के लिए उसे उठाना चाहा किन्तु हथिनी हठ कर के बैठ गई, उठी ही नहीं । नवाब के चाचा समदखां ने कहा - हैवान हठ करता है, खैर नहीं है, आप वहां मत जाओ । नवाब ने उत्तर दिया - आप नवाब होकर भी शकुन अपशकुन मान

CRAZY CHHORA

Suno yaaro me kuch kh rha Bevjh na me kisi ki sun rha Khud k likhe lyrics me gungunata gaane jo ho rymix bs unhi ko sunta ...